Nov 15, 2015

आतंक को धिक्कार


मुझमें जितनी असभ्यता है
उससे भी नीचे जाकर
मैं गाली देता हूँ
उन बर्बर कृत्यों को
जो आतंक से अभिहित हैं।
मुझमें जीतनी भी
जैसी भी
सच्चाई है
आज सच्चे मन ने
उन्हें बटोर कर
मैं श्राप देता हूँ
उन नास्तिक विचारों को
जो मानवता के शत्रु हैं।
मुझे जो संस्कार दिए हैं माँ ने
पिता ने जैसे सँवारा है
मैं वह सब कुछ
उड़ेल देना चाहता हूँ
उन असामाजिक तत्त्वों में
जो इसी समाज में रहते हैं।
वे रोटी नहीं खाते
पानी नहीं पीते
चैन से नहीं रहते
चैन से नहीं जीते,
बस जान खाते हैं
खून पीते हैं
आतंक फैलाते हैं
आतंक में जीते है
और नफ़रत करते हैं मानवता से
बम-बारूद से जिन्हें प्यार है
ऐसे आतंक के संवाहक जीवन को
धिक्कार है।
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- केशव मोहन पाण्डेय

1 comment:

  1. असभ्यता
    जब सिर ऊपर
    चला जाए
    तो फूल
    नहीं झड़ा करते
    गालियां ही
    बरबस निकल
    पड़ती है मुख से
    सामयिक रचना
    सादर

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