Apr 30, 2015

---- गुटबाजी--- (लघुकथा)


    राघव और विकल्प रिश्तेदार के रिश्तेदार होने के नाते एक-दो बार मिले थे। दोनों साहित्यिक अभिरुचि के जीव थे। मिलते ही साहित्यिक चर्चाएँ होने लगती थीं। इन चर्चाओं में ही पता चला कि विकल्प एक साहित्यिक पत्रिका में लिख रहा है। राघव ने उस नई पत्रिका के सारे अंक देखे थे। प्रयास से अभिभूत भी था। एक-दो बार कुछ लेख भी भेजा था। कारण तो नहीं समझ पाया था, मगर उसके लेख नहीं छपे थे। दूसरी ओर प्रत्येक अंक में उन्हीं रचनाकारों को नियमित देखकर उसे लगता कि नई पत्रिका है, और कहीं से लेख नहीं मिल रहा होगा। नहीं मिल रहा होगा तो मेरा लेख क्यों नहीं छपा???

    विकल्प से मिलते ही राघव ने अपनी बात कही, - भाई पत्रिका तो बहुत अच्छी है, मगर पता नहीं क्यों मेरे लेख तो प्रकाशित ही नहीं हो पा रहे हैं।  
    दरअसल हमारी टीम को लगता है कि आप दूसरी पत्रिका के लिए लिखते ही हैं। 
     हाँ, मैं तो देश की अनेक पत्रिकाओं में लिखता हूँ। 
    तो आप किसी एक गुट के नहीं हैं? वैसे हमारी पत्रिका भी किसी गुट, किसी ग्रुप को महत्त्व नहीं देती। हम जितने हैं, एक टीम की तरह काम करते हैं। वैसे अच्छा लगा कि आप दूसरे गुट की पत्रिका की भी तारीफ करते हैं। 
    इस गुटबाजी के कारण मेरी आँखों के सामने का अँधेरा साफ़ हो गया। अब पता चला कि उस पत्रिका में मेरे लेख क्यों नहीं आते। 
                                                                     ------------ 
                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय 

Apr 26, 2015

काँपती धरती का भय


    काँपती धरती ने सबको कँपा दिया है। क्या नेपाल, क्या भारत, भय दोनों देशों की आँखों में है। लोग चैन से न सो पा रहे हैं, न चैन से खा पा रहे हैं। गोरखपुर से एक रिश्तेदार का फोन आया। वे बताने लगीं कि जैसे ही नहाकर वाॅशरूम से निकलीं कि झटके आने लगे। एक मित्र का फोन आया कि मेरे गृह नगर में कोई महिला हृदय गति रूकने के कारण चल बसीं। चारों ओर अफरा-तफरी है। रात ग्यारह बजे तक लोग फोन करते रहे कि समाचार में क्या आ रहा है। अफवाह फैला है कि रात में साढ़े ग्यारह बजे फिर से भूकंप आएगा। सभी लोग बाहर आ गए हैं। खेतों में लोग रात बिता रहे हैं। काँपती धरती से सबकी आँखों में भय पसरा हुआ  है।
    मैं अभी तक दो-तीन बार भूकंप का झटका अनुभव किया हूँ। सबसे पहली बार तीन या चार में पढ़ रहा था। बरसात का समय था। दरवाजे पर विराजमान पीपल का पेड़ झूम गया था। दूसरी बार 2012 में। आफिस में था। लगा कि कुर्सी नीचे क्यों हो गई। और इस बार अधिक। 25 अप्रैल को किसी मनीषी के पास बैठा था। फर्श पर ही हम सभी थे। दीवाल का सहारा लेकर बैठे थे हम सभी। एकाएक झूमने लगे। पाँचवी मंजिल से नीचे उतरने का विचार बनने लगा। पहले एक मिनट तो समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। सबकुछ हिल रहा था। कुर्सी भी। खिड़की भी। सामने का टावर भी और सबके साथ हम भी। फिर जैसे-तैसे काँपने की क्रिया कम हुई। होश आया कि पत्नी तो कमरे पर हैं नहीं। आज उनका विद्यालय खुला है। कमरे पर सिर्फ मेंरा 3.5 वर्षीय बेटा और मेरी भतीजी ही हैं। भतीजी को तुरंत फोन किया। उसने अनुभव तो किया था, मगर समझ नहीं पायी थी। दिल धक् से रह गया। जल्द ही उनसे विदा लेकर कमरे पर आया। सबकुछ कुशल था। दिल्ली हिली अवश्य थी, मगर नुकसान नहीं हुआ था। ऊपर वाले की असीम कृपा ही थी।

    ऐसा नहीं है कि प्रकृति ने पहली बार लोगों को डराया है। भुज, लातूर, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर आदि असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। मगर इस बार का मामला कुछ अलग है। झटके बार-बार आ रहे हैं। बार-बार डरा रहे हैं। पता चल रहा है कि जीने के लिए आदमी कितना बेचैन रहता है। वैसे नेपाल की तबाही बहुुत ही डरावनी है। बार-बार झटका अधिक डर पैदा कर रहा है। मन ईश्वर को याद कर रहा है। मृतकों के आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर रहा है और आँखों में भय पसरा हुआ है। कहीं भी, कुछ भी हिलता या बजता है तो मन काँप जाता है। मन के भय को भगाने का प्रयास हो रहा है मगर चैकन्नी आँखें व्यक्त कर ही दे रही हैं। 
    सोचिए, यहाँ दिल्ली में बैठा मैं इतना भयभीत हूँ तो नेपाल के वासी कैसे नहीं पशुपति नाथ को याद करें। उन्हें तो अब ऊपर वाले का ही भरोसा है। प्रकृति ने बार-बार मानव को विवश सिद्ध किया है, फिर भी दंभी मानव अपनी ही धुन में लगा रहता है। अहंकार के नशे में चूर पागल मानव कमजोरों को दबाने का एक मौका भी नहीं छोड़ता और प्रकृति पल में ही धराशायी कर देती है। पीड़ा तब होती है, दया तब आती है जब प्रकृति का कोप निदोर्षों पर होता है और गोद के गोद, घर का घर, गाँव का गाँव उजड़ जाता है। अगर जिसमें संवेदना है, मानवता का वास है, तो सच्चे मन से अपने ईश्वर से इस प्राकृतिक आपदा से निजात पाने के लिए प्रार्थना करें। उनके दुख में सम्मिलित हों। उन्हें अपनों की अनुभूति होगी। उनकी आँखों से भय का नाश होगा और मानवता को बल मिलेगा।
                                                                            
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 - केशव मोहन पाण्डेय

Apr 25, 2015

धरीक्षण मिश्र (परिचय)


    पूर्वी उत्तर-प्रदेश के तमकुहीराज (कुशीनगर) क्षेत्र के बरियारपुर की धरती पर जन्म लेने वाले स्व. पण्डित धरीक्षण मिश्र किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं। धरीक्षण मिश्र लोक भाषा भोजपुरी के एक महान साहित्यकार थे। व्यंग्य उनकी प्रकृत विधा थी। काव्य में वे रस, छंद और अलंकार के आग्रही थे। उनकी रचनाओं में अलंकार, छंद सामर्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। प्राचीन आचार्यों की भाँति काव्यशास्त्र की मर्यादा में रहकर काव्य-सृजन के साधक थे। भोजपुरी जैसी लोकभाषा में भी उन्होंने संस्कृत के जटिलतम माने जाने वाले ‘शिखरिणी’ तथा ‘अमृतध्वनि’ जैसे छंदों का सार्थक तथा सफल प्रयोग किया है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। वैसे तो वे सामाजिक जीवन की विद्रूपता के कवि थे। समाज के सभी वर्ग व श्रेणियों पर उन्होंने अपनी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ‘कवन दुखे डोली में रोअत जालि कनियाँ’ ने तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। 

    तमकुहीराज तहसील क्षेत्र के बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता-पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपने निजी भूमि पर लगाये गये वाटिका को पसंद किए तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छुआछूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष विशेषताओं में था।
भिखारी ठाकुर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धरीक्षण मिश्र ने घर आंगन, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में बसे गँवई जीवन की कथा-व्यथा को अपनी गीतों, कविताओं में बड़ी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1977 में ‘शिव जी की खेती’, 1995 में ‘कागज के मदारी’, 2004 में ‘अलंकार दर्पण’, 2005 में ‘काव्य दर्पण’, 2006 में ‘काव्य मंजूषा’ के प्रकाशन के साथ ही उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही ‘अंचल भारती सम्मान’ से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा ‘श्री आनन्द सम्मान’, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा ‘गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक’, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर द्वारा प्रथम ‘सेतु सम्मान’, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘भाषा सम्मान’, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत ‘भोजपुरी रत्न’ आदि सम्मान से सम्मानित हुए।
    साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में इनकी रचनाओं को लेकर भोजपुरी भाषा की भी पढ़ाई की शुरूआत की गयी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू और अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम के रूप में स्वीकार की गई हैं। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 1997 के कार्तिक कृष्ण नवमी को बरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महा प्रयाण किया और नास्तिक होते हुए भी मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम साँस लिए। -
लोकतंत्र के मानी ई बा,
लोकि, लोकि के खाईं 
जिन गिरला के आशा करिहें,
हाथमलत पछताई ए भाई,
अइसन राज ना आई ।
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यह कविता नहीं है (एक लम्बी कविता)



बहुत दिनों के प्रयास से
मैं कर पाया
बंद दरवाजे
उलझन भरे मन की।
बंद दरवाजे के रिक्त कंपन से
आते हुए शब्द
हिला देते हैं
अंतर के उस दीवार को
जिसे जोड़ा गया था
भावनाओं की गिली मिट्टी से
जिस पर उकेर देता
कोई/कुछ चित्र
चित्र/स्मृतियाँ . . .
जिन्हें मिटाने के लिए
बंद कर दी थी मैंने दरवाजे
परन्तु सेंध लगा दी रिक्तता ने
उस कच्ची दीवार में
जोड़े गए ईंट की संधि-मध्य की रिक्तता से।
साँस नहीं थी
उस रिक्तता में
परन्तु जीवन था,
रातें नहीं थीं
एक चंद्रमा था,
प्रभा नहीं जागती थी
परन्तु वहीं से फूट रही थी
एक किरण
अंगार बनकर।
और बौनी काया
नख-शिख की
काँप जाती थी
स्मृतियों से।
मैं कवि नहीं था
लेखनी नहीं थी
कुछ भी नहीं था साधन के रूप में
बस एक कागज था मेरे सम्मुख
कोरे विचारों का।
‘एक साधन से कैसे निखरेगा रूप’
घेरती थीं चिंताएँ कि
रूप निखारने के लिए
पुस्तक रखती है
अलमारी रखती है
आज की स्त्री।
एक ही घर में
अलग-अलग कमरे होते हैं
घर के सुडौल सौंदर्य के वास्ते,
परन्तु नोचने के लिए
अपना मुखौटा
तोड़ने के लिए दीवार
मैंने बढ़ा ली थी
दसों नाखून
जो हो गए थे सौ।
बढ़ने पर संख्या के
शक्ति बढ़ती है
स्वभाव बढ़ता है
संस्कृति बढ़ती है
सूर्य भी बढ़ता है
पूरब से पश्चिम की ओर
और नाखून का बढ़ना
पश्चिम जाना ही तो है।
बढ़े हुए नाखून
मेरे लिए
तीक्ष्ण विशिख
तीव्र-धार-तलवार नहीं
कलम बन गए
और मुझे कलम अच्छी लगी
‘कलम या तलवार’ में से,
कौन देगा सजा
कलम से की गई हत्या का?
रोज़ तो मरते हैं पात्र।
तब अपने सभी मित्रों से
माँगी थी स्याही मैंने
हताश होकर सोचा था कि
समुद्र को ही बना लूँ मसि
परन्तु डर गया कि
समुद्र सूख जाएगा
मर जाएँगे के भूखे-प्यासे
अनगिनत जीव सारे
तब भी नहीं लिख पाऊँगा
अपनी स्मृति-कथा को।
मेरे एक मित्र ने समझाया
‘तब भी जीवित रहेंगे केकड़े’
बात सही निकली
केकड़े ने बिना छल के ही
काट ली अंगुली मेरी
और फूट पड़ी लहू की धारा
सुन्न होने लगी चेतना
पीला पड़ने लगा शरीर
तब भी स्मृतियाँ शेष थीं
उस अशेष जीवन में
और दीवार हिल रही थी।
अब कागज, नाखून तथा लहू से
मैं स्मृतियों को
लिखना चाह रहा था
परन्तु आज भी
मैं कवि नहीं हूँ
तब भी नहीं था
क्योंकि मेरे शब्द नहीं हैं
मेरे छंद नहीं हैं
विधा भी तो मेरी नहीं थी
तब भी
अब भी कहाँ कुछ सीखा हूँ मैं?
हाँ, शक्ति थी, साहस था
अनुभूति थी
और आँखों में कुछ चित्र थे . . .
कमर तक धोती चढ़ाकर
जंघे से मसलकर
सरकाना नीचे
और बाँयी तर्जनी में फँसे
सूत के साथ
नाचती तकली का
गोल-गोल/स्थिर नाचकर
तैयार करना संस्कार।
दूर, खेत के मेढ़ पर
चलाते रहना कुदाल
और निरंतर तत्पर रहना
नव-सृजन के लिए
हर साँस में प्रयासरत
हमेशा परछायीं के लंबी होने पर ही
दम लेते थे मेरे पिता।
मैं भूल गया ध्वस्त होता पैंटागन
अपनी स्मृति के आगे
अयोध्या और गोधरा भी
भुज और लातूर
आकाशगंगा बनी कल्पना,
पढ़ना और परीक्षाएँ पास करना,
सुबह उठना, नहाना, खाना
मैं भूलता रहा सब कुछ
लेकिन स्मृतियाँ आती रहती थीं
दीवार हिलती रहती थी।
स्मृतियाँ नहीं दूर होती थीं
मैं कवि भी नहीं था
मेरे शब्द नहीं थे
बस अनुभूति थी मेरी,
एक कागज
सौ कलमें
थोड़े रंग थे मेरे पास।
तब मुझे
लिखने से अच्छा लगा चित्र बनाना
पर मैं चित्रकार भी तो नहीं था।
प्रयास से मैंने खींचा चित्र
शब्दों का
और जब दिखाया तुम्हें
तब कुछ भी नहीं समझ पाए थे मित्र!
आज पुनः सुनाना चाहता हूँ तुम्हें
क्योंकि यह कविता नहीं है
स्मृति है मेरे बचपन की
जो टकराने लगी हैं दीवारों से
पिता जी के जाने के बाद।
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 - केशव मोहन पाण्डेय