Jan 15, 2015

विविधता ही हमारी पहचान है


     मैंने स्त्रियों का श्रृंगार-बॉक्स देखा है। काला काजल, लाल रोरी, सफेद पाउडर। और न जाने किस-किस रंग के उपकरणों से तो उनका सोहल श्रृंगार पूरा होता है। मैं अपने भारत देश की सुन्दरता में भी ऐसा ही कुछ पाता हूँ। पाता हूँ तो लगता है कि सच ही विचित्र विविधता में दृढ़ अस्तित्व कायम करने की कहानी का ही नाम भारत है। इस प्यारे भारत के कई रूप हैं। सृष्टि के सृजन से लेकर प्रथम मानव के साथ गतिशील भारत अनेक रूपों में नजर आता है। आततायियों-आक्रांताओं को सहन करता, लड़ता, उन्हें अपना बनाता और सुदूर भगाता भारत कहीं रूकता नजर नहीं आता है। आज के भारत का सर्वाधिक परिस्कृत रूप 15 अगस्त 1947 को दिखा। उस दिन भारत-भूमि को चार-चाँद लग गया। तब से आज तक का भारत विश्व समुदाय में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है। उपयोगी सिद्ध हो भी चुका है। आज का भारत विकासशील है। बहुत कुछ पा चुका है। पूर्ण रूपेण सशक्त है। प्रेम का पुजारी तो सनातन से रहा है। आज का भारत निर्भय होकर सिर ऊँचा किए अपनी पहचान बता रहा है। विश्व गुरू के रूप में ज्ञानी तो है ही, विश्व के संकीर्णता के घेरे को पार कर चुका अनश्वर है। अनेक बार शत्रुओं का संघार कर चुका है। सत्य की गहराई में गोता लगा कर सत्य प्रस्तुत कर चुका है। सत्य मान चुका है। सत्य कह चुका है। 
     आज का भारत अथक परिश्रम करके पहाड़ों का सीना चीर कर रेल और सड़कें बिछाता जा रहा है। नदियों के नव उन्माद को कठोर बाँधों से काबू में करके उनकी जलधाराओं से विद्युत पैदा कर रहा है। आज का भारत तर्क शक्ति में प्रखर है। पावन आचरण से अमृत बरसाने वाला है। यहाँ रेतों का अंबार है, तो वनों का आच्छादन भी है। विदर्भ का सूखा है तो पूर्वोत्तर में जल का प्लावन भी है। भारत सतत् विशालता को चाहता है। अंतहीन विशालता को। यह देश विशाल भू-भाग पर फैला है। हिमालय की कंदराओं से हिंद महासागर की कछारों तक। जैसलमेर की तप्त मरूभूमि से मेघालय की सद्यःस्नाता प्रकृति तक। 
     भारत विचारशीलों और कर्मयोगियों का देश है। कर्मण्येवाधिकारस्ते के मार्ग पर अनगिनत भारत-वंशियों के पद-चिह्न मिल जाएँगे। यहाँ के लोग सबकी मंगल कामना करते हैं। सर्वे सन्तु निरामयाः की गूंज हर कोने में प्रतिध्वनित होती मिल जाएगी। यहाँ प्रकृति के संपूर्ण पसारे को परिवार के एक डोर में बाँधने वाले अनेक बावले मिल जाएँगे। वसुधैव कुटुम्बकम् यहाँ के जीवन में रचा-बसा है। जीवन-पर्यन्त है। जीवनोपरांत है। कल्याणकारी सोच हमारी पहचान है। सर्वे भवन्तु सुखिनः का मंत्र हमारी साँसों में बसा है। यह देश सभी धर्मों का है। यह संस्कृति सामासिकी संस्कृति है। यह देश सभी जातियों का एक समुच्चय है। 
     अपनी असंख्य विशिष्टताओं का संसार से यशोगान करा चुका भारत विकास के सोपानों पर नव स्फूर्ति से आरोह कर रहा है। यह सत्य है कि आजादी के लिए देश ने बहुत कुछ खोया है। यह भी सत्य है कि आजादी के बाद देश ने बहुत कुछ पाया भी है। भारत की पावन धरती पर नित-नूतन सृष्टि रचना होती रही है। देश की भोली और मूर्ख जनता उन रचनाओं को देख कर विस्मित होती रही। जिन गाँवों देहातों में जाने के लिए सुघर पगडंडियाँ नहीं थी, वहाँ अब सर्पीली सड़कें रेंगने लगी हैं। महिनों बीत जाने पर भी किसी परदेशी का संदेश जहाँ नहीं पहुँच पाता था, आज वहाँ दूर-संचार के चमत्कार से एक दो एस. टी. डी. बूथ तो खुल ही गए हैं, अब हर हाथ में मोबाइल चमकने लगी है। अंधेरी रात के मुँह में गुम जाने वाली बस्तियाँ आज बिजली से चकाचैध रहती हैं। दीपावली का भ्रम देती है। मनोरंजन के लिए तरसने वाले गाँव के लोग अब प्रगति के चमत्कार से अपने-अपने झोपडि़यों-हवेलियों में दूरदर्शन पर मनोरंजन करते हैं। संतति निरोध का विज्ञापन देखते हैं तथा अत्याधुनिक फैशन और बहके ग्लैमर पर मर मिटते हैं। 
     इस सच्चाई को नहीं नकारा जा सकता कि भारत ने विकास किया है। आकाश-लोक में भी, पाताल-लोक में भी और औद्यौगिक संपन्नता में भी। सब जगह हर प्रकार से भारत ने कुछ न कुछ पाया है। इस पाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ खोया भी है। भीतर का मनुष्य मरा है। संवेदनाओं की सरिता सूखती चली गई है। भ्रष्टाचार स्वीकार्य हो गया है। कालाधन ग्राह्य हो गया है। लोगों की जागरूकता अपने हितों तक रह गई है। सामाजिकता का स्वरूप व्यक्तिगत हो गया है। परमार्थ मारा गया। स्वार्थ का अर्थ सबने समझ लिया। सब अपने मिथ्या अहंकार का लोहा मनवाने में लिप्त हैं। शोषण के बाद शिकार करने की बर्ररता बढ़ती जा रही है। आजादी राष्ट्रीय धरोहर बस रह गई है। उस राष्ट्रीय आजादी के समानान्तर क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषा तथा वर्णवाद ने अपना परचम लहराया। कही लाल झंडा, कहीं आग का गोला। धर्मांधता कम हुई, धर्म की राजनीति बढ़ी। जातिगत भेद भाव को दबाकर जाति की राजनीति ने अपना अस्तित्व कायम किया। लोग दूसरे को स्वीकारना भूल गए। स्वयं को स्वीकार करवाने में लग गए। सफेद लिबास और गाँधी टोपी, किसी ताकतवर व्यक्ति का प्रतीक बन गया। वसुधैव कुटुम्बकम् अपने ही कुनबे तक की बात रह गई। फैशन लोगों को वस्त्रों से आजादी की परंपरा सीखाता गया। अमीर-गरीब सब इस मकड़जाल में उलझते गए। आज का भारत बहुत बदल सा गया। 
     बदलाव की इस उत्सव से भारत के रंग और चटक होते गए। इसके हर विकास में सबका योगदान रहा। भारत की समन्वयात्मक संस्कृति में पंडितों का योगदान रहा। साधु-संन्यासियों का योगदान रहा। ख्वाजाओं ने भी इस संस्कृति को सँवारा। मुल्लाओं ने भी, पीर-औलियों ने भी, गुरुनानक देव ने भी, उनके वंशजों ने भी। ईशु और मरीयम के अनुयायियों ने भी सँवारा है इसे। अनपढ़ कोल-किरातों से लेकर सभ्य-सामंतों का भी। विद्वतजनों का भी। फूटपाती जीवन का भी। लक्जरी दिखावे का भी। प्रेम का भी, घृणा का भी। अपनों का भी। अजनबियों का भी। अर्थात् चुंबक के दोनों छोर के आकर्षण से रंगीन है भारत की धरती। 
     देश की यहीं अद्भूत गाथा है कि विसमता-विविधता के अनेक रंगों के बीच भी देश प्रगति कर रहा है। देश की विविधता ही हमारी पहचान है। अनेकता में एकता की कहानी ही तो हमारे हिन्द को महान बनाती है। अगर प्रगति की यह यात्रा अपने साथ-साथ परहीत के लिए भी हो तो सच ही भारत विश्व का प्रथम देश हो जाएगा। शक्ति में भी, साहस में भी, सभ्यता में भी, संस्कृति में भी। जब दृष्टि में व्यापकता आ जाएगी, तब संकीर्णता की शव यात्रा तो निकलेगी ही, स्वार्थ का मकड़जाल  भी स्वाहा हो जाएगा। तब परमार्थ की देवापगा फूटेगी। तब कुंठा और संकीर्णता की दीवार छिन्न-भिन्न हो जाएगी और विराटता का नंदन-कानन उगेगा। तब बुराइयों का ज्वर उतरेगा और आनंद के गुणगान की मस्ती छाएगी। तब ह्रास की निशा सोएगी और समृद्धि की प्रभा नृत्य करेगी। तब आनंद और समृद्धि की धारा लोकतंत्रीय फेरे में नहीं उलझेगी। तब रोटी और रोजगार के लाले नहीं पड़ेंगे। तब भारत की आजादी की एक अद्भूत और नवीन कहानी लिखी जाएगी। तब देश के रंगीन चित्र का रंग और चटक हो जाएगा।
                                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय 
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