Jan 23, 2015

वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजा का आकर्षण

      वसंत! नाम सुनते ही जिस ऋतु का रूप सामने झलकता है, उसमें मादकता का आधिक्य होता है। रंगों की छेड़खानी होती है। रूपों का निखार होता है। जीवन की क्रीड़ा होती है। वसंत पंचमी से ही होली का प्रारंभ माना जाता है। पूर्वी भारत में वसंत पंचमी को विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। वसंत पंचमी एक भारतीय त्योहार है। इस दिन स्त्रियाँ पीत-पट धारण करती हैं। भक्त माँ सरस्वती की वंदना में लिप्त हो जाते हैं। सभी अपने-अपने भावों से ज्ञान की देवी सरस्वती का अनुग्रह चाहता है। भोजपुरी के मूर्धन्य कवि पंडित धरीक्षण मिश्र की एक प्रार्थना देखिए -
वर दे हमें भारती! भारती का उर में धर छंद प्रभाकर दे,
कर दे वह दिव्य प्रकाश कि आप से आप मिटे तम के परदे, 
पर दे शुभ कल्पना का हमको पद और पदार्थ भी सुन्दर दे, 
दर दे दुख दोष दया कर के वरदे वर दे तो यहीं वर दे!!
      भारत में पूरे वर्ष को जिन छह ऋतुओं में विभक्त किया जाता है, उसमें वसंत ऋतु लोगों का मनचाहा ऋतु है। यह वह ऋतु है, जब फूलों पर बहार आती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, तीसी और मटर के कासनी फूल मन को झूमाने लगते हैं, जौ और गेहूँ की बालियाँ खिलने लगती है, आम्र-वृक्षों पर बौर आ जाता है और चारों ओर रंग-बिरंगी तितलियाँ मडराने लगती हैं। मान्यता है कि इस वसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पाँचवें दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता है जिसमें भगवान विष्णु और कामदेव की पूजा होती है। वह उत्सव ही वसंत पंचमी का त्योहार कहा जाता है। 
      शास्त्रों में वसंत पंचमी को ऋषि पंचमी के नाम से उल्लेख किया गया है। पुराणों तथा अन्य कथा-ग्रंथों में अलग-अलग रूप में इसका वर्णन मिलता है। वसंत पंचमी के दिन माँ सरस्वती की पूजा के प्रारंभ के विषय में एक कथा है कि सृष्टि के प्रारंभ काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा जी ने अन्य जीवों के साथ मनुष्य का सृजन किया। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है, जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है। विष्णु भगवान से अनुमति लेकर ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से जल छिड़का। पृथ्वी पर जल बिखरते ही उसमें कंपन होने लगा। इसके बाद एक अद्भुभ शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। यह प्रादुर्भाव एक चतुर्भूज सुंदर स्त्री का था। उस स्त्री के एक हाथ में वीणा थी तथा दूसरा हाथ वर-मुद्रा में था। अन्य हाथों में पुस्तक और माला थी। ब्रह्मा जी ने देवी से वीणा-वादन का अनुरोध किया। जैसे ही उस देवी ने वीणा का मधुर वादन किया, संसार के समस्त जीव-जंतुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधाराओं को कलकल निनाद मिल गया। हवा सरसराने लगी। पक्षी चहचहाने लगे। भौंरे गुनगुनाने लगे। ब्रह्मा जी ने उस वाणी और स्वर की देवी को सरस्वती नाम दिया। तब से इनके जन्मोत्सव को वसंत पंचमी के रूप में मनाया जाता है। सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादिनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। माँ सरस्वती विद्या और बुद्धि प्रदान करने वाली हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की भी देवी हैं। 
ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है, -
                                           प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।
       अर्थात् सरस्वती परम चेतना हैं। ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हम में जो आधार और मेधा है, उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण ने सरस्वती से खुश होकर उन्हें वरदान दिया था कि वसंत पंचमी के दिन तुम्हारी भी आराधना की जाएगी। 
       सनातन धर्म की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। अपनी विशिष्ट विशेषताओं के कारण ही उसे जगत में ऊँची पदवी प्राप्त थी। इसके हर रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और संस्कार में महत्त्वपूर्ण रहस्य छिपा रहता है। रहस्यों को वैज्ञानिक प्रमाणिकता भी प्राप्त है। इन रहस्यों से हमारे जीवन के किसी-न-किसी समस्या का समाधान भी होता है। ये रहस्य भी हमारे मानसिक और आत्मिक विकास के साधन बन जाते हैं। इनसे मनुष्य शारीरिक और बौद्धिक उन्नति की ओर अग्रसर होता है। विचारों को एक नया मोड़ प्राप्त होता है। हमारे अधिकांश त्योहारों का किसी न किसी देवता की उपासना और पूजा से संबंध है। वसंत पंचमी का त्योहार विशेष रूप से ऋतु-परिवर्तन के रूप में एक सामाजिक समारोह के रूप में मनाया जाता है। यह मानसिक उल्लास और आनन्द के भावों को व्यक्त करने वाला त्योहार है। विद्या मनुष्य के व्यक्तित्व के निखार एवं गौरवपूर्ण विकास के लिए है। कौन क्षुद्र-मति होगा जो अपना उज्ज्वल व्यक्तित्व एवं प्रतिष्ठित विकास नहीं चाहेगा? माँ सरस्वती के पूजन के साथ ही हमें उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि स्वाध्याय हमारे दैनिक जीवन का अंग बन जाए। हमें ज्ञान की गरिमा की समझ हो जाए। मन में जिज्ञासा की तीव्र उत्कंठा जागृत हो जाए। पूजन से जड़ से जड़ मानव का भी अंतःकरण चमत्कृत हो जाए। पूजन के समय हवन और सामग्रियों के मिश्रण से परिवर्तित वातावरण मानसिक वृद्धि के लिए और उपयुक्त हो जाता है। 
      माँ सरस्वती के कर-कमलों की वीणा हमें यह प्रेरणा देती है कि मनुष्य की हृदय रूपी वीणा सदैव झंकृत रहे। वीणा से अपनी आंतरिक कला के भावोत्तेजक प्रक्रिया को, अपनी सुप्त सरसता को जागृत करने के लिए प्रयुक्त करनी चाहिए। कई बार नारीत्व के सौंदर्य के प्रसंग में भी वीणा का उल्लेख होता है। वैदिक साहित्य में वीणा का उल्लेख बारंबार संगीत के संदर्भ में होता है। मध्यकाल तक भी विभिन्न कलात्मक कृतियों में वीणा को शास्त्रीय संगीत से जोड़ा जाता रहा।  यह अति प्राचीन तंत्रीनाद है। माँ सरस्वती के हाथ में पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है। यह व्यक्ति की आध्यात्मिक और बौद्धिक प्रगति के लिए स्वाध्याय की अनिवार्यता की प्रेरणा देता है। इसके विपरीत जनमानस की यह मानसिकता है कि विद्या नौकरी करने के लिए प्राप्त करनी चाहिए। परिस्थितियाँ सोच को तो बदलती ही हैं। प्राचीनकाल में जब लोग सच्चे हृदय से सरस्वती की उपासना करते थे, तब इस भारतभूमि को जगत-गुरु का उच्चासन प्राप्त था। दूर-दूर से यहाँ लोग सत्य और ज्ञान की खोज में आते थे और यहाँ गुरुओं के चरणों में बैठकर विद्या सीखते थे। आज उपासना में बदलाव के साथ ही सोच और स्थिति में बदलाव आ गया है। विद्या की देवी, माँ सरस्वती का वाहन है मोर। मोर अर्थात् मृदुभाषी! हमें माता का अनुग्रह पाने के लिए मोर की तरह बनना चाहिए। हर किसी याचक को मृदुभाषी, नम्र, विनीत, शिष्ट और आत्मीयता से पूर्ण संभाषण का वरण करना चाहिए। हमें भी मोर की भाँति कलात्मक और सुसज्जित बनने की अभिरूचि रखनी चाहिए। माँ सरस्वती की प्रतीक प्रतिमा के आगे पूजा-अर्चना का सीधा तात्पर्य यह है कि शिक्षा की महत्ता को शिरोधार्य किया जाए। माँ सरस्वती की कृपा के बिना मानव जीवन का कोई भी महत्त्वपूर्ण कार्य सफल नहीं हो सकता।
       वसंत ऋतु आते ही प्रकृति का कण-कण खिल उठता है। मानव तो मानव हैं, पशु-पक्षी भी उल्लास और उमंग से भर जाते हैं। प्रतिदिन नई उमंग से सूर्योदय होता है और प्रकृति के चर-अचर सबमें नई चेतना का संचार करता है।  वैसे तो माघ का पूरा महीना ही उल्लसित करने वाला है, परन्तु माघ शुक्ल पंचमी अर्थात् वसंत पंचमी का पर्व भारतीय लोक-जीवन को अनेक प्रकार से प्रभावित करता है। आज के दिन को प्राचीन काल से ही ज्ञान और कला की देवी माँ सरस्वती के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। शिक्षा और कला से जुड़े लोग आज के दिन व्रत रह कर माँ शारदे की पूजा और आराधना करते हैं।
      रसिकों का हृदय वसंत पंचमी के दिन वसंत ऋतु के स्वागत के लिए मचलने लगता है। एकाएक हवा सुगंधित हो जाती है। शीत के बाद मौसम में ताजगी अनुभव होने लगता है। छात्र सुबह-सवेरे ही उठकर माँ सरस्वती की पूजा के लिए तैयारियाँ करने लगते हैं।  छात्र-जीवन से वसंत-पंचमी और सरस्वती पूजा की स्मृतियाँ हृदय में अपना अमिट छाप छोड़ी हुई है। उन्हीं स्मृतियों के परिणामस्वरूप आज ज्ञान की देवी और वसंत-पंचमी पर कुछ लिखने को बेचैन हो गया। कई काम तो रात-रातभर जागरण करके भी किया जाता है। माँ के पूजन के लिए बड़े-बड़े एवं भव्य पांडालों का निर्माण किया जाता है। विद्यालय का तो पूरा माहौल ही कई दिन पहले से ही सरस्वतीमय हो जाता है। कोई मूर्ति की व्यवस्था में लगा है तो कोई लाउड-स्पीकर आदि लाने गया है। कोई सजाने में लगा है तो कोई अन्य व्यवस्था में।
      उस समय छात्रों की एकता और सहयोग देखकर ऐसा लगता है कि अवश्य ही माँ सरस्वती इन पर प्रसन्न रहती होंगी। कैसा तो अद्भुत और मनोरम दृश्य होता है! पूजन-अर्चन के बाद सभी लोग माता की वंदना में लग जाते हैं। वंदना क्या? यह तो वाग्देवी का पूरा वर्णन ही होता है, - 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणावरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना,
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वंदिता,
सा मां पातु सरस्वतीती भगवती निःशेष जाड्यापहा।।
     वसंत पंचमी का त्योहार हिंदू धर्म में विशेष महत्त्व रखता है। इस दिन विद्या की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। पूर्वी भारत में (विशेषकर भोजपुरी क्षेत्र में) बड़े उल्लास एवं धूमधाम से किया जाता है। इस दिन ऋतुराज वसंत के आगमन का प्रथम दिन माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण को इस उत्सव का अधि देवता माना जाता है। वसंत ऋतु में प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। इस दिन अन्य पर्वों-त्योहारों की ही भाँति घर की शुद्धि कर पीताम्बर धारण करके उत्सव मनाया जाता है। वसंत पंचमी मानव के आनंद के अतिरेक का प्रतीक होता है। वसंत पंचमी यानि वसंत के आगमन का दिन। यानि विद्या की देवी माँ सरस्वती को प्रसन्न करने का दिन। माँ सरस्वती से मनचाहा आशीर्वाद पाने का दिन। यह दिन विद्यार्थियों के लिए अति महत्त्वपूर्ण होता है। वसंत पंचमी के इस पावन दिन को ही माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी मनाया जाता है। सभी भक्त विद्या की इस देवी के सामने नत् एवं करबद्ध होकर प्रार्थना करने लगते है। ज्ञान किसे नहीं प्यारा होता? कला का कौन प्रेमी नहीं होता? ज्ञान और कला तो वह वैभव है, जिसके दम पर माँ सरस्वती की संतति विश्व-विजय कर जाती हैं। ज्ञान ही हृदय में परमार्थ का बीज बोता है। उमंग की लहरें पैदा करता है और प्रेम, सौहार्द्र के साथ अपने प्रकाश में संसार की सारी बुराइयों को जड़ से मिटाने की ताकत रखता है। भक्त याचक माँ सरस्वती से प्रार्थना करते हुए अधीर हो जाता है। माँ का आशीर्वाद पाकर सूर सूरदास हो जाते हैं। रत्नावली का दीवाना रामचरित मानस की सर्जना कर देता है। रत्नाकर वाल्मीकि हो जाते है। अज्ञान को छोड़कर चाहे वह कोई भी ज्ञान हो, (विज्ञान, संज्ञान आदि) व्यक्ति को विशेष तो बना ही देता है। माँ भारती के वरद्पुत्र पण्डित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की सरस्वती वंदना में भारत के मंगल की अभिलाषा देखें, -
वर दे, वीणा वादिनी वर दे!
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव भारत में भर दे!
      माँ सरस्वती जीवन की जड़ता को दूर करती हैं। सिर्फ हमें उनके योग्य अर्थ में उपासना करनी चाहिए। माँ सरस्वती का उपासक भोगों का गुलाम नहीं होता है। सनातन धर्म के अनुसार शुक्लवर्णी, संपूर्ण चराचर में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, भयदान देने वाली, अज्ञानता के तमस को दूर करने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली, पद्मासन पर विराजमान, बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा सबके कष्टों को दूर करती हैं।
माँ सरस्वती झूठे स्वांग, छल, आत्मप्रवंचना और पाखंड के प्रति निर्मम हैं। वसंत पंचमी का यह उत्सव वर्तमान युग की अस्त-व्यस्तता और आपाधापी में ज्ञान की उपासना को एक विशेष संदर्भ प्रदान करता है। यदि हम दिशाहीन, विषाद, अवसाद और खिन्नता से मुक्त रहना चाहते हैं तो इसके लिए माँ सरस्वती का अनुग्रह ही सहायक सिद्ध हो सकता है। अतः हम मनुष्यों को न केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपितु अपने जीवन को क्लेषरहित और उत्साहयुक्त बनाए रखने के लिए भी माँ सरस्वती की आराधना करनी चाहिए। सरस्वती माता की आराधना के समय वसंत-पंचमी का आकर्षण तो रहेगा ही साथ ही बचपन की स्मृतियाँ भी आकर्षक बनी रहती है और ज्ञान की देवी के समक्ष मन नत-मस्तक होता रहता है। 
                                                                 - केशव मोहन पाण्डेय
                                                                    ----------------

Jan 18, 2015

माँ की थाप और लोरी


     माँ अपने बच्चे को थपकियाँ देकर सुलाती है। बच्चे के शरीर पर माँ की थाप ही केवल नहीं पड़ता। वह थपकियाँ देते समय कुछ गुनगुनाती भी है। माँ द्वारा उस गुनगुनाहट में लय की प्रधानता होती है। वह लय किसी प्रतिस्पर्धा या किसी उत्सव का नमूना नहीं होता। माँ की ममता में सिक्त थपकियों का संघाती होता है। थपकी देकर गाये जाने वाले गीतों को लोरी कहते हैं। लोरियों की परंपरा चिर-प्राचीन है। इनकी प्राचीनता के पक्ष में यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि इनका प्रदुर्भाव मनुष्य की पहली बोली के साथ ही हुआ होगा।लोरियों का कोई अर्थ नहीं होता। इनमें लय की ही प्रधानता होती है। उस लय में माँ की थाप मिली होती है। माँ के थाप के साथ ही बच्चे की तंद्रा में ऊँ-ऊँ का लय कुछ गहरी निद्रा को आमंत्रित करता है। लोरी के लय में माँ वात्सल्य की सुधा शब्दों के माध्यम से आँचल में छिप कर स्तनपान करते हुए शिशु पर बरसाती है। और वह बच्चा स्नेह-सुधा में भींगकर विभोर हो जाता है।
     लोरियों में दो या तीन से अधिक शब्दों या वाक्यों का प्रयोग नहीं होता है। लोरी की आवाज़ पालने के हिलने या थपकियों के ताल से एकदम लयबद्ध होती है। इसका शिशु के ज्ञानेन्द्रियों पर अधिक प्रभाव पड़ता है। लोरी सुनने वाले बच्चे को कम से कम इस दुनिया की तो कोई भी भाषा नहीं आती, लेकिन फिर भी वह माँ के इन प्रेम की थपकी भरे गीतों का अर्थ बखूबी समझ जाता है। तभी तो तुरन्त सो जाता है। लोरी की परंपरा अति प्राचीन है। हर तरह के ताल, तुक, लय और छंद-बंधन से मुक्त इन लोरियों में माँ अपने बच्चे के लिए हमेशा ही स्वर्ग का आनंद खोजने की कोशिश करती रही है। इन लोरियों की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी रही है कि इनके लिए न तो माँ को किसी तरह का कोई अभ्यास करना पड़ता है और न ही उसे कभी कहीं से कोई प्रशिक्षण लेना पड़ता है। लोरियाँ क्षेत्रीयता और सामाजिकता से संबद्ध होकर साहित्य में मिलती हैं। लोरी तो माँ के वे लयबद्ध सुरीले भाव रहे हैं जो बच्चे को कंठ की नहीं, दिल की आवाज सुनाते हैं। संस्कृत साहित्य से भी लोरियाँ प्राप्त हैं। लोरी केवल शिशु के लिए निद्रा का बाट जोहती माता द्वारा गाया जाने वाला एक गेय पद ही नहीं है, इसमें दर्शन, अद्वैत, वेदान्त आदि के गूढ़ तत्त्वों का समावेश भी पाया जाता है। महभारत में मदालसा अपने शिशु से कहती है, -
नाम विमुक्त शुद्धोऽसि रे सुत!
मया कल्पितं तव नाम।
न ते शरीरं न चास्य त्वमसि
किं रोदिषि त्वं सुखधाम।।
     गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी अपने रामचरित मानस में बालकाण्ड के छठवें विश्राम में लिखते हैं कि माताएँ पालने पर या गोद में लेकर शिशुओं को प्रिय ललन आदि कहा करती हैं। देखिए -
हृदय अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।।
कबहुं उछंग बहूँ बर पलना। मातु दुलारई कहि प्रिय ललना।।
     लोरियों में माता का वात्सल्य अपने बच्चे के प्रति छलक पड़ता है। हृदय की अतल गहराइयों से ममता की सुरसरि फूट ही पड़ती है। भोजपुरी की लोरियों में नेह की शब्द-धारा कुछ अधिक ही सरस हो उठती है। भोजपुरी की लोरियों में स्वर-समानता पैदा करने के लिए एक ही शब्द की कई बार आवृत्ति होती है। एक उदाहरण देखें - 
हेलेऽ हेलेऽ बबुआ
कुरूई में ढेबुआ
माई अकसरूआ
बाप दरबरूआ
केऽ खेलाई बबुआ।।
     बच्चों को सुलाने के लिए माता द्वारा विभिन्न तरीके अपनाए जाते हैं। माँ कभी बच्चे को अपने दोनों पाँव पर पेट के बल लेटाकर या घुटने के बल बैठाकर लोरी गाती है। कौन नहीं सुना होगा इस लोरी को - 
घुघुआ मामा
ऊपजे धाना
ओही पड़े आवेलें
बाबू के मामा।
     इन उपक्रमों के बाद भी अगर शिशु के नयन-द्वार पर निद्रा देवी नहीं आतीं तो माताएँ उसी क्रिया में दूसरी लोरी गाती हैं -
अनर-मनर पुआ पाकेला
चीलर खोंइचा नाचे ला
चीलरा गइल खेत-खलिहान
ले आइल तील-कंचन धान।।
     संसार के हर समाज में किसी-न-किसी रूप में लोरी की परंपरा रही है। भाषा, शब्द और उनका अर्थ भले ही अलग-अलग रहा हो, लेकिन माँ के अंतर से निकले भाव सभी में एक से रहे हैं। पर अब ऐसा नहीं रहा। आधुनिक हो-हल्ले के बीच लोरी के बोल ऐसे दबे की फिर न उठ सके। रही-सही कसर संयुक्त परिवारों के टूटने-चटखने की तीखी गूंज ने पूरी कर दी। शहरी संस्कृति में जी रही आजकल की नौकरी-पेशे वाली माताओं के पास जब अपने बच्चे को ठीक से दूध पिलाने तक का भी समय न मिल पाता हो, तो वे उसे लोरी ही क्या सुनाएँगी? केवल शहरी ही नहीं, ग्रामीण स्त्रियाँ भी घर के अन्दर और बाहर का कार्य देखती हैं। अपनी व्यस्तता के कारण वे शिशु को सुलाने के लिए बेचैन रहती हैं। वे घर में चैका-चूल्हा से लेकर खेतों में पुरुषों के साथ भी हाथ बँटाना अपना कर्त्तव्य समझती हैं। असली अर्धांगिनी बनकर। एकदम बराबर की हिस्सेदारी।
     लोक-जीवन की यह मान्यता है कि हँसते-हँसते भी शिशु सो जाता है। माताएँ शिशु को हँसाने के लिए उसकी हथेली पर थपकी देते हुए गाती है -
आटा-पाटा
नौ-दस गाटा
गोली-गैया
गोलंधर बाछा।
     लोरियों की प्रधानता और महत्त्व इनके शब्दों में निहित है। लोरी का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग स्वर होता है। लोरी में स्वर भी होता है, लय भी होता है। लोरी में माँ की क्रिया होती है। उसका वात्सल्य होता है। शिशु का सहज स्वभाव होता है। शिशु के प्रति माँ का स्वाभाविका प्रेम होता है। एक लोरी में वात्सल्य, लय और रस को एक साथ देखा जा सकता है। प्राकृतिक उपादानों से संबंध स्थापना का एक उदाहरण देखें, -
चंदा मामा 
आरे आवऽ, पारे आवऽ
नदी के किनारे आवऽ
सोने के कचोरवा में 
दूध-भात लेहले आवऽ
बाबू के मुँहवा में घुटुकऽऽ।
     पुत्र वत्सला माँ अपने शिशु को बहुत ममत्व से सुलाती है। माँ हिलाती भी है। पुचकारती भी है। लोरी भी गाती है। 
     लोरी का आधार न तो जाति होता और न ही सामाजिक दायरा, फिर भी इसे विभिन्न आधार पर बाँटा जा सकता है। संसार के सभी जातियों में लोरी सीधे-सपाट शब्दों में ही गाया जाता है। माता और संतति का वात्सल्य, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी का बनावटी व्यवहार नहीं देखता। जैसे तितली सबको प्यार लगती है, भौंरा सबको भाता है, मधुमक्खी सबको शहद देती है। वैसे ही माँ की प्रकृति है अपनी संतान पर मुग्ध रहना। संतान से प्रेम करना है। एक माँ के लिए माँ बनना गर्व की बात होती है। एक माँ सभी रत्नों को अपने पुत्र में ही पाती है। एक लोरी का उदाहरण देखें -
ए बबुआ तूँ कथी के?
छने सोना छने रूपा के
बप चउवा चन्दन के
पितिया पीताम्बर के
लोग बिराना माटी के।
     भैतिकवादी जीवन-शैली की व्यस्तता के फलस्वरूप आज हम अपने लोक-जीवन से दूर होते जा रहे हैं। हम सम्पन्नता पाने की दौड़ में आँख पर पट्टी बाँधकर दौड़ता आज का आदमी अपनी मिट्टी को भूलता जा रहा है। आज कामकाजी माँ-बाप को अपनी ही संतानों के साथ समय बिताना संभव नहीं हो पा रहा है। शिशुओं का शैशव माँ की स्नेहिल थाप और लोरी से दूर होता जा रहा है। लोग अपने बच्चों के बचपन को सुधारने के लिए नर्सरियों का सहारा ले रहे हैं। आधुनिकता का वरण किसी भी मायने में गलत नहीं है। समय के साथ चलना तो समय की माँग है। हमारे लोकगीतों की भी अलग स्थिति है। बाजारवाद के आज के हालात में जहाँ अश्लीलता को लोकगीतों का नाम देकर परोसा जा रहा है, वहीं लोरियाँ स्वयं के भाग्य पर रो रही हैं। लोरियों के माधुर्य को मधुमेह हो गया है। उनके लालित्य को लकवा मार गया है। लोरियों के लय को क्षय रोग ने पकड़ लिया है। नन्हें हाथों में लेटेस्ट मोबाइल सेट्स पर अनेकानेक एप्प डालकर पकड़ा दिया जाता है। 
     हमारी लोक-संस्कृति अति समृद्ध है। समृद्धि को आँकने-मापने के लिए ही सही, जब कभी हम किसी भी कारण से एक बार मुड़कर अपने लोक-जीवन को देखेंगे तब सहज ही पता चल जाएगा कि भोजपुरी के लोक जीवन की तरह ही लोक-साहित्य भी कितना समृद्ध है। भोजपुरी लोरियों का स्तर कितना ऊँचा है। तब निश्चय ही इन लोरियों पर गर्व होगा। भोजपुरी पर गर्व होगा और अपने श्लील लोक-जीवन से तथाकथित अश्लीलता को दमर करने के लिए जन-चेतना का जागरण होगा। तब फिर माँ की थाप के साथ लोरियों की स्वर-लहरी गुँजेगी।
                                                                                     - केशव मोहन पाण्डेय 
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Jan 15, 2015

विविधता ही हमारी पहचान है


     मैंने स्त्रियों का श्रृंगार-बॉक्स देखा है। काला काजल, लाल रोरी, सफेद पाउडर। और न जाने किस-किस रंग के उपकरणों से तो उनका सोहल श्रृंगार पूरा होता है। मैं अपने भारत देश की सुन्दरता में भी ऐसा ही कुछ पाता हूँ। पाता हूँ तो लगता है कि सच ही विचित्र विविधता में दृढ़ अस्तित्व कायम करने की कहानी का ही नाम भारत है। इस प्यारे भारत के कई रूप हैं। सृष्टि के सृजन से लेकर प्रथम मानव के साथ गतिशील भारत अनेक रूपों में नजर आता है। आततायियों-आक्रांताओं को सहन करता, लड़ता, उन्हें अपना बनाता और सुदूर भगाता भारत कहीं रूकता नजर नहीं आता है। आज के भारत का सर्वाधिक परिस्कृत रूप 15 अगस्त 1947 को दिखा। उस दिन भारत-भूमि को चार-चाँद लग गया। तब से आज तक का भारत विश्व समुदाय में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है। उपयोगी सिद्ध हो भी चुका है। आज का भारत विकासशील है। बहुत कुछ पा चुका है। पूर्ण रूपेण सशक्त है। प्रेम का पुजारी तो सनातन से रहा है। आज का भारत निर्भय होकर सिर ऊँचा किए अपनी पहचान बता रहा है। विश्व गुरू के रूप में ज्ञानी तो है ही, विश्व के संकीर्णता के घेरे को पार कर चुका अनश्वर है। अनेक बार शत्रुओं का संघार कर चुका है। सत्य की गहराई में गोता लगा कर सत्य प्रस्तुत कर चुका है। सत्य मान चुका है। सत्य कह चुका है। 
     आज का भारत अथक परिश्रम करके पहाड़ों का सीना चीर कर रेल और सड़कें बिछाता जा रहा है। नदियों के नव उन्माद को कठोर बाँधों से काबू में करके उनकी जलधाराओं से विद्युत पैदा कर रहा है। आज का भारत तर्क शक्ति में प्रखर है। पावन आचरण से अमृत बरसाने वाला है। यहाँ रेतों का अंबार है, तो वनों का आच्छादन भी है। विदर्भ का सूखा है तो पूर्वोत्तर में जल का प्लावन भी है। भारत सतत् विशालता को चाहता है। अंतहीन विशालता को। यह देश विशाल भू-भाग पर फैला है। हिमालय की कंदराओं से हिंद महासागर की कछारों तक। जैसलमेर की तप्त मरूभूमि से मेघालय की सद्यःस्नाता प्रकृति तक। 
     भारत विचारशीलों और कर्मयोगियों का देश है। कर्मण्येवाधिकारस्ते के मार्ग पर अनगिनत भारत-वंशियों के पद-चिह्न मिल जाएँगे। यहाँ के लोग सबकी मंगल कामना करते हैं। सर्वे सन्तु निरामयाः की गूंज हर कोने में प्रतिध्वनित होती मिल जाएगी। यहाँ प्रकृति के संपूर्ण पसारे को परिवार के एक डोर में बाँधने वाले अनेक बावले मिल जाएँगे। वसुधैव कुटुम्बकम् यहाँ के जीवन में रचा-बसा है। जीवन-पर्यन्त है। जीवनोपरांत है। कल्याणकारी सोच हमारी पहचान है। सर्वे भवन्तु सुखिनः का मंत्र हमारी साँसों में बसा है। यह देश सभी धर्मों का है। यह संस्कृति सामासिकी संस्कृति है। यह देश सभी जातियों का एक समुच्चय है। 
     अपनी असंख्य विशिष्टताओं का संसार से यशोगान करा चुका भारत विकास के सोपानों पर नव स्फूर्ति से आरोह कर रहा है। यह सत्य है कि आजादी के लिए देश ने बहुत कुछ खोया है। यह भी सत्य है कि आजादी के बाद देश ने बहुत कुछ पाया भी है। भारत की पावन धरती पर नित-नूतन सृष्टि रचना होती रही है। देश की भोली और मूर्ख जनता उन रचनाओं को देख कर विस्मित होती रही। जिन गाँवों देहातों में जाने के लिए सुघर पगडंडियाँ नहीं थी, वहाँ अब सर्पीली सड़कें रेंगने लगी हैं। महिनों बीत जाने पर भी किसी परदेशी का संदेश जहाँ नहीं पहुँच पाता था, आज वहाँ दूर-संचार के चमत्कार से एक दो एस. टी. डी. बूथ तो खुल ही गए हैं, अब हर हाथ में मोबाइल चमकने लगी है। अंधेरी रात के मुँह में गुम जाने वाली बस्तियाँ आज बिजली से चकाचैध रहती हैं। दीपावली का भ्रम देती है। मनोरंजन के लिए तरसने वाले गाँव के लोग अब प्रगति के चमत्कार से अपने-अपने झोपडि़यों-हवेलियों में दूरदर्शन पर मनोरंजन करते हैं। संतति निरोध का विज्ञापन देखते हैं तथा अत्याधुनिक फैशन और बहके ग्लैमर पर मर मिटते हैं। 
     इस सच्चाई को नहीं नकारा जा सकता कि भारत ने विकास किया है। आकाश-लोक में भी, पाताल-लोक में भी और औद्यौगिक संपन्नता में भी। सब जगह हर प्रकार से भारत ने कुछ न कुछ पाया है। इस पाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ खोया भी है। भीतर का मनुष्य मरा है। संवेदनाओं की सरिता सूखती चली गई है। भ्रष्टाचार स्वीकार्य हो गया है। कालाधन ग्राह्य हो गया है। लोगों की जागरूकता अपने हितों तक रह गई है। सामाजिकता का स्वरूप व्यक्तिगत हो गया है। परमार्थ मारा गया। स्वार्थ का अर्थ सबने समझ लिया। सब अपने मिथ्या अहंकार का लोहा मनवाने में लिप्त हैं। शोषण के बाद शिकार करने की बर्ररता बढ़ती जा रही है। आजादी राष्ट्रीय धरोहर बस रह गई है। उस राष्ट्रीय आजादी के समानान्तर क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषा तथा वर्णवाद ने अपना परचम लहराया। कही लाल झंडा, कहीं आग का गोला। धर्मांधता कम हुई, धर्म की राजनीति बढ़ी। जातिगत भेद भाव को दबाकर जाति की राजनीति ने अपना अस्तित्व कायम किया। लोग दूसरे को स्वीकारना भूल गए। स्वयं को स्वीकार करवाने में लग गए। सफेद लिबास और गाँधी टोपी, किसी ताकतवर व्यक्ति का प्रतीक बन गया। वसुधैव कुटुम्बकम् अपने ही कुनबे तक की बात रह गई। फैशन लोगों को वस्त्रों से आजादी की परंपरा सीखाता गया। अमीर-गरीब सब इस मकड़जाल में उलझते गए। आज का भारत बहुत बदल सा गया। 
     बदलाव की इस उत्सव से भारत के रंग और चटक होते गए। इसके हर विकास में सबका योगदान रहा। भारत की समन्वयात्मक संस्कृति में पंडितों का योगदान रहा। साधु-संन्यासियों का योगदान रहा। ख्वाजाओं ने भी इस संस्कृति को सँवारा। मुल्लाओं ने भी, पीर-औलियों ने भी, गुरुनानक देव ने भी, उनके वंशजों ने भी। ईशु और मरीयम के अनुयायियों ने भी सँवारा है इसे। अनपढ़ कोल-किरातों से लेकर सभ्य-सामंतों का भी। विद्वतजनों का भी। फूटपाती जीवन का भी। लक्जरी दिखावे का भी। प्रेम का भी, घृणा का भी। अपनों का भी। अजनबियों का भी। अर्थात् चुंबक के दोनों छोर के आकर्षण से रंगीन है भारत की धरती। 
     देश की यहीं अद्भूत गाथा है कि विसमता-विविधता के अनेक रंगों के बीच भी देश प्रगति कर रहा है। देश की विविधता ही हमारी पहचान है। अनेकता में एकता की कहानी ही तो हमारे हिन्द को महान बनाती है। अगर प्रगति की यह यात्रा अपने साथ-साथ परहीत के लिए भी हो तो सच ही भारत विश्व का प्रथम देश हो जाएगा। शक्ति में भी, साहस में भी, सभ्यता में भी, संस्कृति में भी। जब दृष्टि में व्यापकता आ जाएगी, तब संकीर्णता की शव यात्रा तो निकलेगी ही, स्वार्थ का मकड़जाल  भी स्वाहा हो जाएगा। तब परमार्थ की देवापगा फूटेगी। तब कुंठा और संकीर्णता की दीवार छिन्न-भिन्न हो जाएगी और विराटता का नंदन-कानन उगेगा। तब बुराइयों का ज्वर उतरेगा और आनंद के गुणगान की मस्ती छाएगी। तब ह्रास की निशा सोएगी और समृद्धि की प्रभा नृत्य करेगी। तब आनंद और समृद्धि की धारा लोकतंत्रीय फेरे में नहीं उलझेगी। तब रोटी और रोजगार के लाले नहीं पड़ेंगे। तब भारत की आजादी की एक अद्भूत और नवीन कहानी लिखी जाएगी। तब देश के रंगीन चित्र का रंग और चटक हो जाएगा।
                                                                                               - केशव मोहन पाण्डेय 
                                                                        ------------


Jan 14, 2015

‘गँवार-कूटीर’ का मालपुआ


     मैं स्वयं में बचपन से ही साहित्यानुराग पाता रहा हूँ। सृजनशीलता स्नातक कक्षाओं में जन्मी। मन में उत्साह और श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव तथा डॉ वेदप्रकाश पाण्डेय की प्रेरणा और प्रयास से 14 जुलाई 2001 में सेवरही में साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ का श्रीगणेश मेरे लिए एक अलौकिक अनुभव था। ‘संवाद’ की सर्जना और उसके साहित्यिक-गोष्ठियों के सफर के परिणाम स्वरूप आस-पास के सुधि कविगणों से परिचय और अपनत्व होने लगा। उन्हीं में से एक धनी-हृदय के कवि रूप थे डॉ रामानंद राय ‘गँवार’। वैसे तो रामानंद राय ‘गँवार’   पशुचिकित्सक रहे परन्तु सबसे बड़े और पहले एक कवि थे। वे भोजपुरी साहित्य की साधना के बड़े साधक थे। संवाद की गोष्ठी में कई बार ऐसा हुआ कि श्रोताओं की बात तो दूर, साहित्यकारों के लाले पड़ जाते थे। उस समय में भी गँवार जी अपनी गाड़ी में एक-दो अन्य लोगों को भी लेकर पधारते थे। कई बार तो मेरे फोन करने से पहले उन्हीं का फोन आ जाता और पूछते कि फलां तारीख को दूसरा शनिवार है, गोष्ठी है न?
     साहित्य के प्रति ऐसा अनुराग बहुत कम कलमकारों में मिलता है। गँवार जी की लेखनी जब भी उठी, भोजपुरी का मान-वर्धन के लिए ही उठी। शैली कोई भी हो, उनकी विधा काव्य ही रही। उनके पास तत्कालीन जीवन और समाज के हालातों को देखने और अनुभव करने की एक अलग दृष्टि थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1935 को सपहीं खुर्द हुआ, परन्तु पटहेरवा का ‘गँवार-कुटीर’ किसे याद नहीं है? उन्होंने साहित्यरत्न और आयुर्वेदरत्न से एम. ए. किया सरकारी सेवा में आ गए। उनमें कभी कलम की ताकत का दंभ नहीं देखा गया। कभी असहयोग की बात नहीं पाई गई। वे जिस भी तरह से थे, हमेशा सहयोग करने के लिए तत्पर रहते थे। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है जिसे गोष्ठी के 50 माह पूरा होने पर ‘संवाद’ स्मारिका के प्रकाशन और कवि-सम्मेलन के आयोजन के अवसर पर मैंने पाया। अपनी साहित्यिक सर्जना में उन्होंने बड़ी बखूबी से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं पर अपनी दृष्टि रखते रहे हैं। भोजपुरी भाषा सम्मान सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत श्री गँवार जी का कवि समाज में व्याप्त लूट-खसोट को देखकर द्रवित भी होता है और संवेदनशील भी। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र पूर्णतः लूटतंत्र के परिणत हो गया है। सहज जनता के बीच अपने दाल को गलाने के लिए नेताओं ने अपने आप को अवसरानुसार बदला है। नेताओं की चतुराई से सरल जनता की त्रासदी पर लिखते हुए वे अपने ‘गँवार सतसई’ में कहते हैं, -
बइठल धुरतई आज अस, जस सुरसा के गाल।
सब सबक बाटे छलत, अइसन बिगड़ल चाल।।
     रामानंद राय ‘गँवार’ की दृष्टि बहुत दूर तक देखती थी। वे बेबाक स्वर में अपने विचारों को शब्दों का जामा पहनाने में सिद्धहस्त थे। व्यवहारिकता में अपने प्रतिद्वंदियों से भी लोहा मनवाने वाला यह कवि सामाजिक बदलाव को देखकर सामाजिक मान-मर्यादा की रक्षा का उपाय ढूँढने लगता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है, -
गुंडा चले गिरोह में, सज्जन चलै पराय।
कइसे इज्जत अब रही, जुगति न एक लखाय।।
     आकाशवाणी और दूरदर्शन पर निरंतर काव्यपाठ करते रहने वाले गँवार जी की रचनाएँ ‘संपदा’, ‘भोजपुरी माटी, ‘कुबेरनाथ’ जैसी असंख्य पत्रिकाओं का मान तो बढ़ाती ही रहीं, वे ‘संवाद’ जैसे अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी आबद्ध रहे। ‘गँवार सतसई’, ‘राग-गँवार’, ‘अइसन हमार ई माटी ह’ जैसी रचनाओं को सृजित करने वाले गँवार जी कहीं-कहीं जागरुक हो कर सरकारी विचारों-व्यवहारों का समर्थन करते नजर आते हैं। जीवन की दैनिकी में ना ही वे अपनी माटी को भूलते हें और ना ही जीवन की गतिशीलता में माँ के ममत्व और महातम्य को ही। एक उदाहरण द्रष्टव्य है, -
कबो दरिया नियर ई बहत जिंदगी,
कबो झरना नियर ई झरत जिंदगी,
कबो आँधी-तूफां ई बवंडर हो जा
माई के गोद में ई पलल जिंदगी।
     लंबे-चौड़े शारीरिक डिल-डौल वाले गँवार जी हृदय के भी विशाल थे। उनकी भावना को तो सहजता से ही आँका जा सकता है कि हम साहित्य-प्रेमी जब कभी भी पटहेरवा से गुजरते, वे हमें बुला ही लेते। रस को आदर देते हुए वे काव्य-श्रवण को उतावले हो जाते। सुनाने से अधिक सुनने के आग्रही गँवार जी बड़ी उत्सुकता से कवियों को पुकारने लगते। एक क्षणिक गोष्ठी भी आयोजित हो जाती और फिर उनके यहाँ के मालपुआ के दौर को कौन भूल सकता है। काव्य रस के साथ ही ‘गँवार-कूटीर’ के किचन से उठता शुद्ध घी युक्त मालपुए का गंध काव्य-पाठ को और सरस बना देता। तैयार होने पर काव्य-पाठ बीच में ही रोक दी जाती। मालपुआ और पकौड़ों के बाद चाय की चुस्की। आज भी जब मैं किसी सवारी से पटहेरवा के नव-निर्मित फ्लाई ओवर से गुजरता हूँ तो ‘गँवार-कूटीर’ की ओर आयास ही देखने लगता हूँ। 
     भले ही गँवार जी का देहावसान 3 अगस्त 2010 को हो गया हो, परन्तु शब्द-ब्रह्म के साथ लेखनी की साधना करने वाले उनके व्यक्तित्व को कौन बिसार सकता है? उनका अनुकरण करते हुए कलम के सेवकों की नई बगिया तैयार होने लगी है। उनके आत्मजों में उनकी लेखनी को बचाने की बेचैनी भी है। उनके आग्रहियों का उनके प्रति आज भी अक्षुण श्रद्धाभाव है। कलम के नवीन साधकों से उनके जो अपेक्षाएँ थी, आज और बलवती होते दिखाई देती हैं। उनकी पंक्तियाँ आज के नवोदित कलमकारों से अपील करती नज़र आती हैं, -
देखो जला रही जग को है,
संघर्षों की अद्भुत ज्वाला।
प्रतिपल कँपा रहा सबको है?
भीमकाय बन संशय काला।
ज्वालाओं को सुधा-सिक्त कर
प्रेम-प्रसून खिला दे।
कवि ऐसा गीत सुना दे,
मानस में दीप जला दे।।
     उनके जीवन के अंतिम दिनों में उनकी दो और कृतियाँ ‘शैतान सिंह’ और ‘जवाहर’ आयीं। उनकी रचनाओं पर कई शोधार्थियों ने शोध भी किया है। अब उनके पुत्रद्वय उनका जन्मोत्सव एक साहित्यिक आयोजन के रूप में प्रतिवर्ष पटहेरवा (कुशीनगर), उत्तर-प्रदेश में मनाते हैं। उन पर एक स्मृति-ग्रंथ तैयार किया जा रहा है। भोजपुरी साहित्य को आनंदित करने वाले गँवार जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन को अर्पित करते हुए आज मेरा माथा दर्प से उतुंग हो जाता है कि मुझे उनका सानिध्य मिला है, उनका अनुभव मिला है और उनके द्वारा निर्देशन भी मिला है। वे एक सरस हृदय वाले भावुक और काव्य-प्रेमी व्यक्ति थे। मेरे जैसे अदने से बालक के वैवाहिक उत्सव में उनका सहजता से सम्मिलत होना मुझे आह्लादित कर चुका है। मेरे लेखों पर उनकी बहुमूल्य टिप्पणियाँ मुझे निर्देशित करते हुए शक्ति दे चुकी हैं। उनकी कुपा और स्नेह को याद करके मैं स्वयं को धन्य समझता हूँ। इस धरती को धन्य समझता हूँ। भोजपुरी साहित्य को धन्य समझता हूँ। समझता हूँ कि बड़े गर्व से कहा जा सकता है कि तमकुही क्षेत्र के उस कलमकार का पार्थिव अस्तित्व भले ही स्मृति-शेष रह गया हो, परन्तु उनके कृतित्व की ऊर्वरा से यह सृजनशील धरती और लहलहाने गली है।
                                                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 
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Jan 13, 2015

मकर संक्रान्ति बनाम खिचड़ी के खींचखाँच


     खिचड़ी खाने में कभी पेट को हानि नहीं उठाना पड़ता है। इससे हल्का भोजन शायद ही कुछ हो। यह एक लोकप्रिय भारतीय व्यंजन है जो दाल तथा चावल को एक साथ उबाल कर तैयार किया जाता है। इसमें हमारी माई स्वादानुसार और आइटम भी डालती थीं। यह पेट के रोगियों के लिये विशेष रूप से उपयोगी है। यह तो इसका पाचकीय और औषधीय गुण हुआ, मगर भारतीय समाज की विराटता की दृष्टि से देखा जाय तो यह एक पर्व विशेष का पकवान विशेष भी है। उस दिन छप्पन भोग इसके सामने मात खा जाते हैं।
     उत्तरी भारत में मकर संक्रान्ति के पर्व को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन खिचड़ी खाने का विशेष रूप से प्रचलन है। वैसे गाहे-बेगाहे लोग पता नहीं किस-किस प्रकार का खिचड़ी पकाते है, यह तो राजनीति, कूटनीति, पारिवारिक ढाँचा, सामाजिक सोच और वैश्विक संबंधों के साथ भी सिद्ध किया जा सकता है। मगर जब बात मकर संक्रांति के दिन की हो तो उस दिन लोग खिचड़ी बनाते हैं और सूर्य देव को खिचड़ी प्रसाद स्वरूप अर्पित करते हैं। सूर्य देव भी इस दिन भक्तों से प्राप्त खिचड़ी का स्वाद बड़े आनंद से लेते हैं। आखिर ऐसा क्यों न हो? इस दिन खिचड़ी बनाने और इसे ही प्रसाद स्वरूप देवाताओं को अर्पित करने की परंपरा शुरू करने वाले भगवान शिव जो माने जाते हैं। साल भर में आपने भले ही कितनी ही बार खिचड़ी खायी हो लेकिन मकर संक्रांति जैसी खिचड़ी का स्वाद आपको सिर्फ मकर संक्रांति के मौके पर ही मिल सकता है। 
     इन पर्वों-त्योहारों का सबसे सुखद आनन्द बचपन में आता है। बाद में तो वे सुखद पल केवल स्मृतियों में ही रह जाते हैं। समय का बवण्डर जीवन जीने के लिए पता नहीं आदमी को किस-किस घाट का दर्शन करवाता है, यह तो भोगने वाला भी नहीं याद कर पाता। जब इन पर्व-त्याहारों का अवसर आता है तो बीती स्मृतियों के दर्पण का गर्त कुछ-कुछ उड़ने लगता है और चित्र में स्वच्छता आने लगती है। मुझे अपने बचपन की खिचड़ी जिसे मकर संक्रांति भी कहा जाता है, वह कई कारणों से याद आती है। नहाने, खाने और पहनने तक के कारण। भले जाड़े के कारण और दिन न नहाने का मन करे, मगर मकर संक्रांति के आले सुबह नींद खुल जाती थी। पानी गरम है या नहीं, बाबुजी के लाख डाँट और माई के नौ निहोरा के पहले ही नहाने का मूड बन जाता था। नहाये कि माई पतुकी (मिट्टी का छोटा बरतन) में चावल, बैगन, चावल का लड्डू (लाई/धोंधा), तील का लड्डू, आलू, मिर्च, नमक आदि छूने के लिए रख देती थीं। हम लपक कर वहीं पहुँचते थे। छू कर चढ़ाये गए खिचड़ी के चावल की बनी गरमागरम खिचड़ी खाते और फिर खेत से तोड़कर लायी गई गोभी तथा नकिया कर लाये गये आलू की गरमागरम सब्जी के साथ लाई का स्वाद कैसे बिसारा जा सकता है। यह तो बचपन में खिचड़ी के दिन भोगे गए यथार्थ का चित्र  है, मगर इस खिचड़ी या मकर संक्रांति की सामाजिक मान्यता और लोक स्वीकृति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। 
     मान्यता है कि उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाने की परंपरा की शुरूआत हुई। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में मकर संक्रांति को खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है। खिचड़ी बनने की परंपरा को शुरू करने वाले बाबा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) थे। बाबा गोरखनाथ को भगवान शिव का अंश भी माना जाता है। कथा है कि खिलजी के आक्रमण के समय नाथ योगियों को खिलजी से संघर्ष के कारण भोजन बनाने का समय नहीं मिल पाता था। इससे योगी अक्सर भूखे रह जाते थे और कमजोर हो रहे थे। इस समस्या का हल निकालने के लिए बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। यह व्यंजन काफी पौष्टिक और स्वादिष्ट था। इससे शरीर को तुरंत उर्जा भी मिलती थी। नाथ योगियों को यह व्यंजन काफी पसंद आया। बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन का नाम खिचड़ी रखा। झटपट बनने वाली खिचड़ी से नाथयोगियों की भोजन की समस्या का समाधान हो गया और खिलजी के आतंक को दूर करने में वह सफल रहे। खिलजी से मुक्ति मिलने के कारण गोरखपुर में मकर संक्रांति को विजय दर्शन पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। गोरखपुर स्थिति बाबा गोरखनाथ के मंदिर के पास मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी मेला आरंभ होता है। कई दिनों तक चलने वाले इस मेले में बाबा गोरखनाथ को खिचड़ी का भोग लगाया जाता है और इसे ही प्रसाद रूप में वितरित किया जाता है।
     शास्त्रानुसार, मकर संक्रांति के दिन सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं और मकर राशि के स्वामी शनि देव हैं, जो सूर्य देव के पुत्र होते हुए भी सूर्य से शत्रु भाव रखते हैं। अतः शनिदेव के घर में सूर्य की उपस्थिति के दौरान शनि उन्हें कष्ट न दें, इसलिए तिल का दान और सेवन मकर संक्रांति में किया जाता है। मान्यता यह भी है कि माघ मास में जो व्यक्ति रोजाना भगवान विष्णु की पूजा तिल से करता है, उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। मान्यता भी है कि इस दिन गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम प्रयाग में सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते हैं। इसलिए इस दिन दान, तप, जप का विशेष महत्त्व है। इस दिन गंगा स्नान करने से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है।
     मकर संक्रांति में चावल, गुड़, उड़द, तिल आदि चीजों को खाने में शामिल किया जाता है, क्योंकि यह पौष्टिक होने के साथ ही शरीर को गर्म रखने वाले होते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को अनाज, वस्त्र, ऊनी कपड़े, फल आदि दान करने से शारीरिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। दीर्घायु एवं निरोगी रहने के लिए रोगी को इस दिन औषधि, तेल, आहार दान करना चाहिए। सूर्यदेव के उत्तरायण की राशि मकर में प्रवेश करने के साथ ही देवताओं के दिन और पितरों की रात्रि का शुभारंभ हो जाएगा। इसके साथ सभी तरह के मांगलिक कार्य, यज्ञोपवीत, शादी-विवाह, गृहप्रवेश आदि आरंभ हो जाएंगे। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश पृथ्वी वासियों के लिए वरदान की तरह है। कहा जाता है कि सभी देवी-देवता, यक्ष, गंधर्व, नाग, किन्नर आदि इस अवधि के मध्य तीर्थराज प्रयाग में एकत्रित होकर संगम तट पर स्नान करते हैं। श्री तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है कि - 
‘माघ मकर रबिगत जब होई। 
तीरथपति आवहिं सब कोई।। 
देव दनुज किन्नर नर श्रेंणी। 
सादर मज्जहिं सकल त्रिवेंणी।।' 
     अब यह तो स्पष्ट है कि मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर सभी तीर्थों के राजा प्रयाग के पावन संगम तट पर महीने भर वास करते हुए स्नान ध्यान दान पुण्य करने का विधा है मगर बाबा गोरक्षनाथ के मंदिर में उस अवसर पर खिचड़ी चढ़ाने का भी कम महत्त्व नहीं है। ये परम्पराएँ, ये लोक मान्यताएँ, ये सामाजिक आयोजन कभी हमें गुड़ के माधुर्य से तील जैसे बिखरे समाज को एक सूत्र में बाँधने का उदाहरण देते हैं तो कभी मिट्टी की पतुकी और नदिया की खरीददारी से सामाजिक व्यवसाय को सम्मानित करते हैं। वैसे तो धर्म की परिपाटी तो यह है कि प्राणी इस माह में किसी भी तीर्थ, नदी और समुद्र में स्नान कर दान-पुण्य करके त्रिबिध तापों से मुक्ति पा सकता है, लेकिन लोक-मान्यता और व्यावहारिकता का मग भी समाज में एकता और माधुर्य को कायम रखने का एक प्रयोग है। 
     बचपन की बाते अनायास ही नहीं याद आतीं। जब जीवन के रास्ते पर अनुभवों का उपहार और ठोकरें मिलती हैं तो बच्चे के भविष्य की कल्पना वाली बातें याद आ जाती हैं। याद आ जाता है कदम-कदम पर बड़े-बुजुर्गों का समझाना और हमारा मौन प्रतिकार करना। याद आ जाता है खिचड़ी के बाद पुराने पतुकी से दिदियों के साथ गोनसार का खेल खेलना और संझा के खेल के बाद, तुलसी पुरवा पर दीया रखा जाने के पहले एक गाल लाई (तील या चावल का लड्डू) खाने की जिद्द करना। तब एक बार फिर दीदी-भैया के साथ थाल में आगे आये खिचड़ी को देखकर मन गा ही उठता है - 
'खिचड़ी के खींचखाँच, फगुआ के बरी।
नवमी के नौ रोटी, तब पेट भरी।।'
                                                                       - केशव मोहन पाण्डेय
                                                                 ............................... 

Jan 12, 2015

युवा प्रेरणा के अक्षय स्रोत: विवेकानन्द


     जब आदर्श व्यक्तियों की बात आती है तब मेरे मानस पटल पर एक साथ कई चित्र उभरते हैं। दुष्टों का संहार करने के लिए धनुष-धारण किये हुए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम और अक्षय मुस्कान के धनी कुवलय तथा गुंजाओं से सुशोभित, चारु वेणु-वाद करते श्रीकृष्ण का भी। परन्तु जब ऐतिहासिक महापुरुषों की ओर देखता हूँ तो एक ही रूप पर दृष्टि ठहर जाती है। चित्त प्रसन्न हो जाता है। उधर नज़र पड़ते ही दिखायी देता है उन्नत तेजयुक्त ललाट, केशरिया वस्त्र, दिखायी देती है विशाल पगड़ी। दीप्तिमान मुख मंडल। नयनाभिराम बड़री आँखें। गौर वर्ण काया। अधर पर मृदु हँसी। साथ ही दिखायी देती है कई क्रियाएँ, कई भंगिमाएँ। ध्यान मग्न चिंन्तक। मुखर वक्ता। अथक राही। दृढ़ निश्चयी युवक। सरल संन्यासी। गहन विचारक।
     सब कुछ एक ही व्यक्ति में देख लेता हूँ मैं। वह व्यक्तित्व है विश्वनाथ दत्त एवं भुवनेश्वरी देवी के लाल का। वह व्यक्तित्व है कोलकाता के सिमुलिया मुहल्ले के एक युवक का। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के परम शिष्य नरेन्द्र नाथ का। वह व्यक्तित्व है भारतीय गरिमा का यशोगान करने वाले दृढ़ निश्चयी, प्रखर वक्ता स्वामी विवेकानन्द का।
     स्वामी जी के व्यक्तित्व को देखने पर पता चलता है कि उनकी काया केवल हाड़-मांस-रक्त से ही नहीं सिरजी गई थी। लगता है कि लोहे की मांसपेशियाँ थी तो इस्पात की शिराएँ और उसके भीतर बज्र का मस्तिष्क था। तभी तो उनके हृदय में अपने पुरातन मूल्यों के प्रति आस्था थी तो वर्तमान के प्रति अपराजेय अक्षय क्रियाशीलता। उनमें मानव मात्र के प्रति आसक्ति थी तो भविष्य के प्रति दृढ़ संकल्प के पृष्ठ पर लिखे गए नुतन स्वप्न-सृष्टि। स्वामी जी एक विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। देवत्व का अंश था उनमे। उनका बालपन साहस, जिज्ञासा, जिद्द तथा उत्सुकता के स्वभाव से परिपूर्ण था। वे बातों के सत्यता की खोज करते थे। सत्य के भक्त तो बाल्यावस्था से ही थे, परन्तु ‘ईश्वर सत्य है’ कि बात वे ऐसे ही कैसे मान लेते? जब कि कई प्रयास के बाद भी उन्हें ईश्वर नहीं मिला। परिणामतः स्वामी जी का युवा मन नास्तिकता की ओर प्रवृत्त हो गया। तब भी उत्सुकता गई नहीं। इसी उत्सुकता ने उन्हों एक दिन स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सत्संग में पहुँचा दिया। उत्सुकता के ही बदौलत वहाँ कमाल हो गया एक बार। ध्यान-मग्न विवेकानन्द के ललाट पर स्वामी परमहंस ने अपने पैर के अंगुठे से स्पर्श कर दिया। कहते हैं कि उनकी धरती डोल गई। पलट गई उनकी पूरी काया। विवेकानन्द का सर्वांग झनझना गया। हाड़-मांस का पिण्ड तो वहीं था मगर आँख खोले तो अंतर का सबकुछ बदल चुका था। वे कुछ-से-कुछ और हो गए थे। दृष्टि बदल गई थी। सोच बदल गई थी। इस प्रकार विश्वनाथ दत्त एवं भुवनेश्वरी देवी का बेटा भारत माँ का सच्चा सपूत विवेकानन्द हो गया। 
      परिवर्तित विवेकानन्द की दृष्टि स्वयं या प्रकृति या जाति-वर्ग विशेष तक ही नहीं देख रही थी। वह दूरदर्शी हो गई। वह बदलाव राष्ट्र के लिए हुआ। समाज के लिए हुए। स्व से बढ़ कर पर के लिए हुआ। धर्म और संस्कृति के लिए हुआ। बदलाव भारत माता के लिए हुआ। विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म को नया व्याख्या दिया। उनका मानना था कि धर्म कल्पना की चीज नहीं, प्रत्यक्ष दर्शन की चीज है। महापुरुष सैकड़ों पुस्तकों से बढ़कर है। अनुभव का ज्ञान पुस्तकीय ज्ञान से कम नहीं है। उन्होंने सच्चे धर्म के क्षेत्र में पुस्तकीय ज्ञान को कम स्थान दिया। वे सच्चे मायने में चिरंतन काल तक बने रहने वाले चिर युवा थे। उन्होंने सबको प्रेरणा दी - ‘उतिष्ठत्! जाग्रत्! प्राप्य-वरान्निबोधता!’ का उद्घोष किया। स्वामी जी ने सकल जहान को मानवता और प्रेम का संदेश दिया। भारतीय संस्कृति और हिन्दू दर्शन का शंखनाद कर शिकागो के प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन में अपने अकाट्य तर्कों द्वारा सबको विस्मित कर दिया। स्वामी विवेकानन्द प्रथम संन्यासी थे जो एक महान देशभक्त, समाज सुधारक, तथा राष्ट्रीय पुनरूत्थान की शक्तियों को प्रचारित करने वाले युगपुरुष भी थे।
   स्थिर व्यक्तित्व के संन्यासी स्वामी विवेकानन्द में राष्ट्रीय चेतना थी। मानवता से प्रेम था। अपनी संस्कृति से असीम अनुराग था। स्वामी विवेकानन्द ने अपने उज्ज्वल व्यक्तित्व से सिद्ध कर दिया कि ‘न हिं मनुष्यात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्।’ विवेकानन्द ने इस विचार को पुनः स्थपित किया कि पक्षियाँ सुन्दर हैं। उनका कलरव मधुर है। पुष्पों में अक्षय सुन्दरता है। उनका गंध सबसे बढ़कर है। लेकिन मानव सुन्दरतम है। मानव धन्य है। मनुष्य की ही सुन्दरता से प्रकृति रमणिक है। अच्छी बात है कि आज विचारों का बदलाव हो रहा है। तो क्या? बदलाव तो प्रकृति की शाश्वत प्रक्रिया है। इसका अर्थ सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, सामाजिक, मानवीय आदि मूल्यों को भुलाना तो नहीं होता? आज का प्रत्येक मानव साइबर से जुड़ रहा है तो क्या? प्रगतिशील सोच रखने वाला व्यक्ति, समाज या धर्म हथियारों का जखिरा नहीं तैयार करता, वह तो प्रेम और मानवता का फूल सजाता है। आज का वातावरण बदल रहा है। परिवेश में परिवर्तन हो रहा है। तब परिवर्तन की इस घड़ी में हमें अपने विरासत, अपनी संस्कृति, अपनी गरिमा और पहचान को भूलाना नहीं चाहिए अपितु नवीनता से विकास की गति के साथ गतिशील होकर देखना चाहिए। साथ ही जहाँ कहीं भी शक्ति के ह्रास की अनुभूति हो युवा प्रेरणा के अक्षय स्रोत विवेकानन्द का स्मरण करना चाहिए। उनके विचारों और सोच को आत्मसात् करना चाहिए। जीवन को निरंतर सकारात्मक सोच से सजाना चाहिए मानवता के गंध से मँहकाना चाहिए और स्नेह से सींच कर सुरभित संसार को समृद्ध करना चाहिए।
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                                                                                              - केशव मोहन पाण्डेय
                                                      

Jan 8, 2015

गणेश चौथ पर भेड़ा काटना


     आज गणेश चौथ है। गणपति बप्पा मोरया कह कर मूर्ति विसर्जित करने वाला नहीं, माघ के कृष्ण पक्ष का गणेश चतुर्थी व्रत। थोड़ा क्या, स्नातक पास करने और परास्नातक में लोक-साहित्य पढ़ते समय मुझे पता चला कि इस व्रत को संकट चौथ  भी कहा जाता है। संकट चौथ का यह त्योहार माघ के कृष्ण चतुर्थी को मनाया जाता है। इतना तो मुझे लड़कपन में ही पता था। एक अलग उत्साह के साथ प्रतीक्षा किया जाता था आज के दिन का। माई के साथ गाँव के रात में करीब नौ, साढ़े-नौ या दस बजे तक एक बोरसी के सहारे ढिबरी के टिमटिमाते टेम के उजाले में चंद्रमा के प्रकट होने का बाट जोहना एक अलग प्रकार का आनन्द देता था। माई फूल के लोटा का ही कलश बनाकर पूजा आदि करती थी। भूने हुए तील में मीठा को मिसकर जो प्रसाद तैयार किया जाता, उसकी भी प्रतीक्षा कम चाव से नहीं की जाती थी। भले सभी भा-बहीन सो जाते थे, मगर मुझे नहीं सोने दिया जाता था। तील का बना हुआ भेड़ा जो काटना होता था। भेड़ा काटने और चंद्रोदय के बीच के समय को बिसारने के लिए माई कई कथा कहती थी। उसी कथा में इस तिलकूट गणेश चौथ का महात्म्य और विधि की कथाएँ भी कहती थीं।
     वैसे तो प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष गणेश चतुर्थी ही कहलाती है। धार्मिक प्रवृत्ति की स्त्रियाँ उस दिन व्रत व गणेश पूजन भी करती हैं। परंतु जहां तक माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का प्रश्न है, इस व्रत को कुछ विशेष विधि से किया जाता है। इसे कई नामों से पुकारा जाता है। जैसा देश, वैसा भेष। ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ के कारण इसे वक्रतुण्डी चतुर्थी, माघी चौथ, तिलकुटा चौथ,  गणेश चौथ आदि  नामों से भी जाना जाता है। इस दिन पूजा करने से चाहे पूजा में बैठने से विद्या-बुद्धि-वारिधि सब बढ़ता है। (मुझे लगता था कि माई मुझे बैठाये रखने के लिए ‘चाहे पूजा में बैठने से विद्या-बुद्धि-वारिधि’ वाला हिस्सा जोड़ देती थी।) इसमें संकट हरण गणेशजी तथा चंद्रमा का पूजन किया जाता है। यह व्रत संकटों तथा दुखों को दूर करने वाला तथा धरती के सभी जीवों की, चाहे वह अंडज हो, पिंडज हो, उकमज हो या स्थावर हो, की सभी इच्छाएँ व मनोकामनाएँ पूरी करने वाला है।
     मैं तब भी अपनी माई को देखता था, आज भी अपनी पत्नी को देखता हूँ। इस दिन स्त्रियाँ निर्जल व्रत करती हैं मगर आवाज में वहीं टनक रहती है। पत्नी को नहीं आता मगर माई तो एक साँसे तीन-चार कथा सुनाती थी। मैं भी बड़ी ही रूचि से पूजा-विधि के एक-एक कार्य को बड़ी ही सावधानी से देखता था। सबसे पहले एक पटरे या पीढ़ा पर चौरा के मिट्टी से गणेश जी की प्रतिमूर्ति बनाई जाती थी तथा विधि पूर्वक पूजा की जाती है। पूजा के उपरांत माई कथाएँ सुनाती थी। अधिकांश कथाओं में शिव जी का ही परिवार विराजमान रहता था। कभी पार्वती जी का त्याग तो कभी गणेश जी की वीरता। अब कथाएँ पूर्णतः नहीं याद हैं। उनका कोलाज़ है स्मृति में। गणेश जी के प्रसाद खाने तथा अन्य क्रिया करने की कथा छहर-छहर के रूप में अधिक स्पष्ट है।माई कथा सुनाने के बाद तथा चंद्रमा के उदय होने पर लोटे में भरा जल या व्यवस्था होने पर दूध से चंद्रमा को अर्घ्य देती थी और इस प्रकार व्रत खोला जाता है। आज भी इस व्रत में रात्रि को चंद्रमा को अर्घ्य देने के बाद ही महिलाएँ भोजन करती है। इस पूजा-व्रत में तिल की माँग बढ़ जाती है। माई कहती थी कि इस दिन तिल को भूनकर गुड़ के साथ कूटकर तिलकुटा अर्थात तिलकुट का पहाड़ बनाया जाता है। कहीं-कहीं तिलकुट का बकरा भी बनाया जाता है। अपने यहाँ भेंड़ा बनाया जाता है। भेंड़ा की पूजा करके घर का कोई बच्चा उसकी गर्दन काटता है, फिर सबको प्रसाद दिया जाता है। पूजा के बाद भेड़ा का गरदन काटने का अवसर मुझे बहुत बार मिला है। भा-बहिनों में सबसे छोटा होने के कारण अपने-आप को बड़ा हो जाना भले मान लूँ, मगर वर्षों तक छोटा ही रहा हूँ। उसका लाभ भी मिला है। ऐसे लुप्त होते व्रत-त्योहारों को समझने-बुझने का अवसर मिला है। माई का साहचर्य मिला है। बाबुजी की डाँट के साथ अनुभव भी पाया हूँ। उसी में मैंने जाना है कि माई भले ही कभी-कभी लाख खुश होने पर भी अभाव के कारण एक पसर तिल से पूजन-विधि संपन्न कर लेती थी, मगर कथा में कहती थी कि तिलकुटे से ही गणेशजी का पूजन किया जाता है तथा इसका ही बायना निकालते हैं और तिलकुट को भोजन के साथ खाते भी हैं। जिस घर में लड़के की शादी या लड़का हुआ हो, उस वर्ष सकट चैथ को सवा किलो तिल को सवा किलो मीठा (गुड़) के साथ कूटकर इसके लड्डू बनाए जाते हैं। इन लड्डूओं को बहू बायने के रूप में सास को देती है। तिल, ईख, गंजी (सकरकंद या कोन), अमरूद, गुड़, घी से चंद्रमा गणेश का भोग लगाया जाता है। यह नैवेद्य रात भर पूजा-स्थान पर ही डलिया से ढककर रख दिया जाता है। पुत्रवती माताएँ पुत्र तथा पति की सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत करती हैं। उस ढके हुए प्रसाद को पुत्र ही खोलता है तथा उसे भाई-बंधुओं में बाँटा जाता है।
     सवेरा होते ही मैं प्रसाद के आकर्षण में सबसे पहले दतुअन करता। उस दिन मेरा भाव रहता। जिसको जितना दिया, उसे लेना पड़ा। आखिर देर तक माई के साथ मैं ही तो जागता। उस दिन न बाबुजी डाँटते और ना भैया को बचाने की नौबत आती। वैसे ही आज हो गया है। समय के परिंदे ने ऐसा पर मारा है कि हम लोग दूसरे काल खंड में चले आए है। कुछ ही दिनों में जेनरेशन बदलने लगता है। वन-जी हम समझे भी नहीं थे कि टू-जी के घोटालों ने सबको समझा दिया। स्पीड की चाहत में हम थ्री-जी ही ले रहे थे कि अब फोर-जी लांच हो गया है। यहाँ परिवार का मतलब ही समझ में नहीं आता। तब बाबुजी कभी मारने दौड़ते तो भैया लोग अपने पीठ की ओर सरकाकर बचा लेते। जब भी माई से बात होती थी तो एक ही बात टेरती थी, - ‘बाबू कुछ खाये हो? बाहर में जबान पर लगाम लगाकर रहना। ऊहे मुँहवा पान खिआवेला आ ऊहे जूता।’ अब न बाबुजी हैं, न मारते हैं, न भैया बचाते हैं। अब न माई है। न कोई खाने और रहने की बात उस ममता से पूछता है। तभी तो आज जब पत्नी तिलकूट चौथ की तैयारी में लगीं तो मुझे माई का चिलकूट चौथ व्रत याद आ गया। याद आ गया कोन (सकला, सकरकंद) के उबलने की गंध। याद आ गया तिल और मीठा के मेल का सुवास और उससे बना काटे जाने को तैयार भेंड़ा।
                                                                                                        - केशव मोहन पाण्डेय
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Jan 1, 2015

नव-गति, नव-लय, ताल-छंद-नव

     अब हम सभी अपना कैलेण्डर बदल लेंगे। आज से नव-वर्ष की शुरुआत हो गई। नवीनता का स्वागत तो करना ही होगा। नवीनता का स्वागत तो अपनी संस्कृति, अपने परंपरा के अनुसार करना ही पड़ेगा। भारतीय संस्कृति एक जनवरी को नव-वर्ष नहीं मनाती, तो त्याग ही कहाँ करती है? भारत की धरती पर ही ईसाई, हिज़री, शक् आदि नव-वर्षों का समन्वय देखा जा सकता है। यह समन्वय की विशेषता, सभ्यता की विशेषता, मानस की विशेषता और माटी की विशेषता है।  माटी की ही विशेषता है कि पेट में कुछ नहीं है, हलक सूख हुआ है, अधर पर कालिमा छा गई है, आँखों की ज्योति मर गई है, मगर पास-पड़ोस में हो रहे पर्व-त्योहार, यज्ञ-अनुष्ठान में हम गा उठते हैं। संगीत पर मन झूम उठता है। अवसर और वातावरण को हम स्वीकार लेते हैं। चाहे चैत्र का चिड़चिड़ा और वियोगी मौसम हो, चाहे जनवरी की ठिठुरी-ठिठुरी काया वाली सुबह। तन्वंगी और कौमार्ययुक्त बाला जैसी प्रकृति का सुप्त-सौन्दर्य। पर्व-उत्सव तो हम मनाते ही है। नव वर्ष का उत्सव तो नई ऊर्जा-नई संवेदना, नई सोच का संवाहक है। मानव-मन इससे कैसे दूर रहे?
     पिछले कुछ सालों में हमारी गति कुछ तेज हुई है। हम कम समय में दूर तक पहुँचने में सिद्धहस्त हो गए है। मन की आकांक्षाएँ कम प्रयास में ही पूर्ण हो जा रही है। सबकी बुद्धि तीक्ष्ण होती जा रही है। तर्क-शक्ति से नई दिशाएँ तैयार हो रही हैं। नई संभावनाएँ विकसित हो रही हैं। नए रास्ते दिखाई दे रहे हैं। मनुष्य आगे बढ़ते जा रहा है। तेज, तेज और तेज की होड़ लगी है। मनुष्य की इस गतिशीलता से समय थक जा रहा है। मानव आगे निकल जा रहा है, समय पीछे ही रह जा रहा है। समय हार मान ले रहा है। समय के साथ के इस आँख-मिचैली में नव-वर्ष का उत्सव अपनी विविधता के कारण भी प्रिय होता है और अपने रंग-रूप के कारण भी। नव वर्ष एक उत्सव की तरह पूरे विश्व में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तिथियों तथा विधियों से मनाया जाता है। विभिन्न सम्प्रदायों के नव वर्ष समारोह भिन्न-भिन्न होते हैं और इसके महत्त्व की भी विभिन्न संस्कृतियों में परस्पर भिन्नता है। नव- वर्ष  मनाने का इतिहास अति-प्राचीन है। इस नव वर्ष का उत्सव 4000 वर्ष पहले से बेबीलोन में मनाया जाता था। लेकिन उस समय नए वर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी। प्राचीन रोम में भी नव वर्षोत्सव के लिए चुनी गई थी। रोम के तानाशाह जूलियस सीजर ने ईसा पूर्व 45वें वर्ष में जब जूलियन कैलेंडर की स्थापना की, उस समय विश्व में पहली बार 1 जनवरी को नए वर्ष का उत्सव मनाया गया। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला वर्ष, यानि, ईसापूर्व 46 इस्वी को 445 दिनों का करना पड़ा था । हिन्दू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे। इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है। यह दिन ग्रेगरी के कैलेंडर के मुताबिक पाँच सितम्बर से पाँच अक्टूबर के बीच आता है। हिन्दुओं का नया साल चैत्र नव रात्रि के प्रथम दिन यानि गुदी पर हर साल चीनी कैलेंडर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है।
     पृथ्वी के सभी जीवों में मनुष्य एक श्रेष्ठ प्राणी है। सबसे श्रेष्ठ प्राणी है। श्रेष्ठ प्राणी होकर भी मनुष्य है बड़ा जीवट। वह जीवन का सुन्दर-से-सुन्दर रूप देखता है। भावनाओं में जीने के साथ ही वह तर्क-शक्ति पर विश्वास करता है। ‘रिनैसा-युग’ प्रमाण है इसका। तब से आज तक की गति के साथ प्रकृति का रूप बदल दिया है मानव ने। अब अपनी तार्किकता से मानव ने सिद्ध कर दिया है कि सूर्य कभी डूबता नहीं है। पृथ्वी गोल है। प्रिया का मुख चाँद जैसा कैसे? वहाँ तो धूल, चट्टाने और पहाड़ है। मनुष्य पृथ्वी के निर्माण में सारे रसायनिक और प्राकृतिक क्रियाओं को समझ रहा है। वहाँ की वास्तविकता और भौतिक-क्रिया-कलाप भी मनुष्य समझ रहा है। प्राण-वायु की परख हुई है।
     भारत के विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है। पंजाब में नया साल बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग़आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह 19 मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड नया वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नया साल दीपावली के दिन होता है। गुजराती नया साल दीपावली के दूसरे दिन होता है जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नया साल होता है।
     इस्लामिक कैलेंडर का नया साल मुहर्रम होता है। इस्लामी कैलेंडर एक पूर्णतया चन्द्र आधारित कैलेंडर है जिसके कारण इसके बारह मासों का चक्र  33 वर्षों में सौर कैलेंडर को एक बार घूम लेता है। इसके कारण नव वर्ष प्रचलित ग्रेगरी कैलेंडर में अलग अलग महीनों में पड़ता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि (युगादि) कहा जाता हैं, इस दिन हिन्दू नववर्ष का आरम्भ होता है। गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है। कहते है शालिवाहन नामक एक कुम्हार-पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘गुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है।
     उत्तरोतर विकास करने वाला मनुष्य निरंतर नूतनता का वरण करता रहे। अगर इस तरह के विचार मन में बस गए तो प्रतिदिन की सुबह एक नवीन संदेश के साथ आयेगी। चिडि़यों के कलरव का स्वर भी एक नए लय में होगा। हवा की ताजगी मन को गुदगुदाएगी तथा भगवान भुवन भास्कर प्रतिदिन अपनी मखमली धूप में सबको नहलाकर नवीन आशाओं के साथ जीवन में अग्रसर होने के लिए प्रेरित करेंगे। नूतनता का दीवाना कौन नहीं होता? सबको नया माहौल, नए लोग, नया वस्त्र, नई उम्र, नया स्वर, नई ताल अपनी ओर आकर्षित करते हैं। हिंदी के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी नवीनता की प्रार्थना करते हुए माँ सरस्वती से कहते हैं, -
नव-गति, नव-लय, ताल-छनद नव,
नवल-कंठ, नव जलद-मंद्र-रव,
नव-नभ के नव-विहग-वृंद को
नव पर नव स्वर दे।
    नवीनता चाहे किसी भी अवसर का हो, मन में उल्लास भरने वाले उस नव पल के लिए मेरा मन भी असीम शुभकामना व्यक्त कर रहा है।
                                                                      ----------------- - केशव मोहन पाण्डेय