Dec 20, 2014

नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर

     'खून किसी का भी गिरे यहाँ, नस्ल-ए-आदम का खून है आखिर। बच्चे सरहद पार के ही सही, किसी के छाती के सुकून हैं आखिर।।' निदा फ़ाजली का यह शेर कितना सटीक और मानवतावादी है। अभी हाल में हुई पेशावर की त्रासदी से पूरी दुनिया सन्न है, दुखी भी है। भारत और भारतीयों को तो ऐसा लग  है कि यह घटना  हुई है।  तो यह कि पेशावर की उस त्रासदी के बाद भारतीय प्रधानमंत्री तो शोक व्यक्त करते ही  है, साथ ही सभी भारतीय विद्यालयों से आग्रह करते है कि मृत-शिशुओं की आत्मा की शान्ति के लिए दो मिनट का मौन धारण करे। पूरा दर्द हमें अपना लगता है। हम कभी भी नहीं चाहते कि पाकिस्तान में या दुनिया के किसी कोने में कोई बारदात हो। हम अपनी भारत माता से बेहद प्यार करे है। किसी ने बहुत ही सटीक कहा है कि जो अपनी माँ से प्यार करेगा वह दूसरों की  आदर करेगा। यह अलग बात कि लखवी की ज़मानत से पाकिस्तान ने अपनी मातृ-भक्ति पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम की रही है। भारत एक ऐसा देश है जिसने वेदकाल से ही वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास रखा है। 
                                            अय निजः परोवेति, गणना लघुचेत साम्।
                                            उदार चरितानाम् तु, वसुधैव कुटुम्बकम्॥
     अर्थात् यह मेरा है और यह पराया है, ऐसा विचार संकुचित मानसिकता का परिचायक है, श्रेष्ठ एवम् उदार चरित्र वाले व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व को ही अपना परिवार मानते हैं। भारत का समाज अत्यंत प्रारम्भिक काल से ही अपने अपने स्थान भेद, वातावरण भेद, आशा भेद, वस्त्र भेद, भोजन भेद आदि विभिन्न कारणों से बहुलवादी रहा है। यह तो लगभग वैदिक काल में भी ऐसा ही रहा है अथर्व वेद के 12वें मण्डल के प्रथम अध्याय में इस पर बड़ी विस्तृत चर्चा हुई है एक प्रश्न के उत्तर में ऋषि यह घोषणा करते हैं कि 'जनं विभ्रति बहुधा, विवाचसम्, नाना धर्माणंम् पृथ्वी यथौकसम्।सहस्र धारा द्रवीणस्यमेदूहाम, ध्रिवेन धेनुंरनप्रस्फरत्नी।।' अर्थात विभिन्न भाषा, धर्म, मत आदि जनों को परिवार के समान धारण करने वली यह हमारी मातृभूमि कामधेनु के समान धन की हजारों धारायें हमें प्रदान करें।
     आज का यह दौर बहुत ही बुरा है ऐसा लगता है कि पूरा विश्व अनाथ है, इसका कोई मां बाप ही नही है । जो चाहे हथियार के बल पर अपनी मनमानी कर ले। अपने स्तर से इस संसार को बिना कोई मुलाहिजा या विचार के भरपूर लूट रहे है । इस दौर व इस मनोवृति के बारे में तो आगे लगातार लिखना ही है कि क्या गलत है कहां गलत है, क्यो गलत है, समय समय पर इस बारे में विशलेषण करना ही है। आज विश्व आतंकवाद की समस्याओ के दुष्चक्र में फंसकर जो हत्याओं का मातम मन रहा है, यह कोई सामान्य बात नही है बल्कि यह एक ऐसा षडयंत्र भरा मकड़जाल है जिससे कोई भी देश बच नही सकेगा । 
     अब तो दुनिया के सभी मातृ-भक्तों को जगाना चाहिए। अब तो और ही स्पष्ट हो गया कि दुनिया दो समूहों में विभक्त है - एक आतंकवाद के समर्थक और दूसरे शांति के समर्थक। भाई, यह तो लाखों बार सिद्ध हो चूका है कि आसुरी प्रवृतियां चाहें जितना  भी दम लगा लें, चाहे जितनी हानि पहुँचा ले, चाहे जितने मासूमों को हलाल कर दे, अंत तो उन्हीं का होता है। मैं पेशावर की घटना के बहाने पाकिस्तान से ही कहना चाहूँगा। भाई पाकिस्तान,  अब भी जाग जाओ। कोहरा छंटने वाला है। सूरज की किरणें छिटक रहीं है। उठो। आज़ान की आवाज सुनो। यह आज़ान, यह पुकार वज़ू करने, सिजदा करने के केवल नहीं है, वह तो तुम किसी ही हाल में करते हो, हमारे यहाँ के मुसलमान भी करते हैं, यह यह आज़ान, यह पुकार खुद को जगाने  है। आतंक के खिलाफ एकजूट होने के लिए है। उन 142 शहीदों की मौत का कम-से-कम इतना तो तवज्जो दो कि खुदा के पास जाकर तुम्हें मुआफ़ करने और तुम्हारी गलतियों को भूल जाने की करें। 
     भाई, हम तो तुम्हारे जन्म से  चेते हुए है। कोई भी हाफ़िज़ चाहे लाख गला फाड़े, न आज तक हमारा कुछ बिगाड़ा है और न आगे कुछ बिगाड़ पायेगा। भाई तुम्हारा जन्म तो हमसे ही हुआ है। पैदा करने वाले हैं तुम्हारे। सलाह दे रहे हैं। बात मान लोगे तो आने वाली नश्लें चैन से रहेंगी, नहीं तो अपने पैर पर आप ही कुल्हाड़ी तो मार ही रहे हो। हम तो फ़न कुचलना भी जानते हैं, समझना भी जानते हैं और सामने वाले की औक़ात भी दिखाना जानते है। हमारे रेडियो जॉकी नावेद ने याद है न विलावल भुट्टो के मुद्दे पर किस निडरता के साथ ज्ञान दिया था? नहीं याद आ याक़ूब शेरवानी से एक दफ़ा यू ही पूछ लेना। यह तो हमारे खून में है।  हमारी है। इतना इतिहास तो पढ़े होगे। 
    भाई, दुनिया भेद और भय से आपको नहीं मानेगी। मैं अपनी दिवंगता माँ की एक बात बताता हूँ। मेरी माँ कहती थीं कि चाहे कोई कितना भी रोब दिखले मगर लोग प्यार की ही भाषा मानते है। - ' ऊहे मुँहवा पान खिआवेला ऊहे मुहँवा जूता। ' (वहीं मुँह पान खिलाता है, वहीं जूता) तो आओ, विश्व के दूसरे समूह के साथ, शांति चाहने वालों के साथ कदम बढ़ाकर विश्व में शांति-स्थापना में अपना योगदान दो। भाई, आतंकवादियों का मुँह स्वतः बंद हो जायेगा। एक बार फिर निदा फ़ाजली का यह शेर भी समझ रहा है कि - 
                                         दिलेरी का हरगिज़,हरगिज़ ये काम नहीं है। 
                                         दहशत किसी मजहब का पैगाम नहीं है। 
                                         तुम्हारी इबादत, तुम्हारा खुदा, तुम जानो --
                                       हमें पक्का यकीं है, ये कत्तई इस्लाम नहीं है। 
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1 comment:

  1. बिल्कुल सही बात। आज क दौर में कुछु हो सकेला।

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