Oct 9, 2014

सूर्योपासना की परंपरा का प्रमाण है तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर


     सूर्य देव सभी प्राणियों के पोषक हैं। दिवा-रात्रि और ऋतु परिवर्तन के कारक हैं। विभिन्न व्याधियों के विनाशक हैं। वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही हैं। सूर्य से ही जीवन है। पृथ्वी है। आकर्षण है और हरीतिमा है। सूर्य सर्वमान्य सत्य है। सत्य के प्रतीक हैं। सत्य के साथ तेज के प्रतीक हैं। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य अर्थात सर्व प्रेरक। सूर्य सर्व प्रेरक हैं। सर्व प्रकाशक हैं। सर्व प्रवर्तक हैं। सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी भी है। ऋग्वेद के देवताओं में सूर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘सूर्य आत्मा जगत्स्तथुषश्च’ कहा गया है। यजुर्वेद ने ‘चक्षो सूर्यो जायत’ कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। गीता में ‘ज्योतिषां रविरंशुमान’ कहा गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। सूर्य को ही संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्त्व समझाया गया है। 
      अनेक पुराणों के आख्यान के साथ-साथ लोक प्रचलित भी मान्यता है कि श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र शाम्ब बहुत सुंदर थे। ऋषि दुर्वासा के श्रापवश उन्हें कुष्ट रोग हो गया। यह निश्चित हुआ कि सूर्य-पूजा से ही इस रोग से मुक्ति मिल सकती है। इसके लिए भारत के बाहर शक द्वीप से सूर्योपासना में प्रवीण ब्राह्मणों को आमंत्रित किया गया। उन्होंने विधि-विधान-पूर्वक सूर्य को पूजित कर उन्हें प्रसन्न कर लिया और शाम्ब कुष्ट रोग से मुक्त हो गए। भविष्य पुराण में इस घटना का उल्लेख है-
न योग्यरू परिचर्यायां जम्बूद्वीपे ममानघ।
तन्मगान् मम पूजार्थ शकद्वीपादिहानय।।  

      प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध है और कुछ अपनी पहचान के लिए संघर्षरत। उन्हीं पहचान के लिए संघर्षरत मंदिरों में से एक है उत्तर-प्रदेश के कुशीनगर जनपद के तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर।

      कसया-तमकुही मार्ग पर एक छोटा सा बाजार है तुर्कपट्टी। यह स्थल भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर से सत्रह कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का अस्तित्व प्राचीन काल के पुराणों, ग्रंथों आदि में मिलता है। यह काफी पुराना मंदिर है। इस सूर्य मंदिर के बारे में स्ंकद पुराण और मार्केंडय पुराण में भी पढ़ा जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ होने वाली खुदाई के दौरान चैथी, पाँचवीं, आठवीं और नौवीं सदी की सूर्य भगवान की दो मूर्तियों को खोजा गया था। खुदाई से प्राप्त उन मूर्तियों को इस मंदिर में स्थापित कर दिया गया था। दोनों मूर्तियाँ काले पत्थर की बनी हुई हैं जिसे यहाँ के स्थानीय क्षेत्र में नीलमणि पत्थर कहा जाता है। इस मंदिर को गुप्त वंश के दौरान बनवाया गया था।
      एक मान्यता यह भी है कि तुर्कपट्टी महुअवा खास गाँव के रहने वाले सुदामा शर्मा को रात में स्वप्न दिखा कि वह जिस जगह पर सोया है उसके नीचे भगवान सूर्य की मूर्ति है। सुदामा ने इस स्वप्न पर ध्यान नहीं दिया। कुछ दिन बाद उसके परिवार के एक सदस्य की अकाल मृत्यु हो गई। इसके बाद सुदामा ने यह बात कुछ लोगों को बताई। 31 जुलाई 1981 को सूर्य ग्रहण लगा था। उसी दिन पूर्व ग्राम प्रधान मथुरा शाही के नेतृत्व में ग्रामीणों ने सुदामा शर्मा के बताए गए स्थान पर खुदाई की थी। खुदाई में यहाँ दो प्रतिमाएं मिलीं। इनमें से एक बलुई मिट्टी की थी और दूसरी नीलमणि पत्थर की। इतिहासकारों ने इसे गुप्तकालीन बताया था।
      इतिहासकारों की माने तो इस पुराने मंदिर को भारत के पहले पुरातत्व सर्वे के दौरान खुदाई में जनरल ए. कनिंघम द्वारा खोजा गया था। बाद में 1876 में इसका जीर्णोद्धार करवाया गया और 31 जुलाई 1981 को इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि सोमवार और शुक्रवार को इस मंदिर में दर्शन करने का सबसे अच्छा दिन होता है। कार्तिक माह के षष्ठी और फाल्गुन माह के तेरस के दिन यहाँ भक्तों का तांता लगा रहता है। इसके अलावा, जन्माष्टमी के पर्व पर भी यहाँ श्रद्धालुओं का काफी जमावड़ा रहता है।
      सूर्य देवता न केवल अन्नों, फलों आदि को पकाते हैं, बल्कि नदियों, समुद्रों से जल ग्रहण कर पृथ्वी पर वर्षा भी कराते हैं। संपूर्ण प्राणियों के वे पोषक हैं। उपासना करने पर वे सभी प्रकार की मनोकामनाओं की पूर्ति करने में भी सक्षम हैं। चर्म रोग, जिसमें कोढ़ के समान असाध्य रोग भी सम्मिलित है, से छुटकारा पाने के लिए सूर्योपासना सर्वाधिक सशक्त साधन है। सूर्य की उपासना हमें दीर्घायु भी बनाती है। सूर्य की उपासना-आराधना ऋग्वैदिक काल से ही प्रचलित है। ऋग्वेद के एक सूक्त में सूर्य को सभी मनुष्यों का जनक, उनका प्रेरक और इच्छित फलदाता घोषित किया गया है- उद्वेति प्रसवीता जनानां महान् केतुरर्णवरू सूर्यस्या। 

      सूर्योपासना के विभिन्न रूप रहे हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-महर्षि नदियों-सरोवरों के जल में पूर्व की ओर मुख कर सूर्य को जल का अर्घ्य अर्पित करते थे। कुछ लोग गायत्री-मंत्र का जाप कर उन्हें प्रसन्न करते। सूर्योपासना का एक प्रकार सूर्य-मंदिरों में स्थापित विग्रह का पूजन है। प्राचीनकाल से ही सूर्य-मंदिर भारत ही नहीं, विदेशों में भी बनते आए हैं। रोम में ईसाई धर्म के आगमन के पूर्व सूर्य-पूजा का प्रचलन था और वहां कई सूर्य-मंदिर निर्मित हुए। राजा के महल के प्रवेश-द्वार के ऊपर सूर्य की आकृति अंकित थी। दक्षिण अमेरिका में भी सूर्य-मंदिरों के अवशेष पाए गए हैं। माया-सभ्यता निवासियों में सूर्योपासना यहां प्रचलित थी। भारत में श्रीकृष्णकाल से ही मंदिर-निर्माण का प्रचलन है। तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर सूर्योपासना के उन्हीं रीतियों और परंपराओं से जुड़ा एक ऐतिहासिक मंदिर है।
      तुर्कपट्टी में मिली भगवान सूर्य की मूर्ति अद्भुत है। पुराणों में सूर्य के जो लक्षण वर्णित हैं वे इस मूर्ति में दिखते हैं। रथ में जुते सात घोड़े, सूर्य की रानियाँ और सारथी अरुण की छवि साफ दिखती है। प्रतिमा में राहु और केतु भी दिखते हैं। भगवान सूर्य के दोनों हाथों में कमल है। साथ ही किन्नर और गंधर्व सूर्य का गुणगान करते दिखते हैं। यहाँ पहली बार 1985 में सूर्य महोत्सव का आयोजन हुआ था। प्रदेश के संस्कृति विभाग और स्थानीय लोगों के सहयोग से शुरू हुए इस महोत्सव से इस जगह को काफी प्रसिद्धि मिली। देशी-विदेशी पर्यटक भी आने लगे। 1992 में सूर्य महोत्सव बंद हुआ तो पर्यटकों ने भी यहाँ से नाता तोड़ लिया। 24 अप्रैल वर्ष 1998 की रात्रि में यहाँ से नीलमणि पत्थर वाली भगवान सूर्य की मूर्ति चोरी हो गई थी। काफी प्रयास के बाद मूर्ति तो मिली लेकिन उसके बाद भी सुरक्षा का कोई बंदोबस्त नहीं किया गया। कुछ दिन तक दो सिपाही तैनात रहते थे। अब एक होमगार्ड की भी ड्यूटी नहीं है। 
      पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण तुर्कपट्टी का सूर्य मंदिर वर्तमान समय में प्रशासनिक उपेक्षा का दंश झेल रहा है। गुप्तकालीन नीलमणि पत्थर की मूर्ति वाला यह सूर्य मंदिर उत्तर भारत में इकलौता है। बावजूद इसके मंदिर तक जाने के लिए ढंग का रास्ता भी नहीं है। इस सूर्य मंदिर के विकास पर सरकार ने शुरू में ध्यान दिया। तब 25 लाख रुपये भी यहाँ विकास के लिए दिए गए थे। बाद में किसी ने इसकी सुधि नहीं ली। विधायक निधि से मंदिर परिसर में बना फव्वारा कई साल से बंद पड़ा है। विश्राम गृह भी देखभाल के अभाव में जर्जर हो गया है। आवागमन का कोई सरकारी साधन न होने के चलते पर्यटकों को तमाम परेशानियों का सामना करना पड़ता था। इससे उनका यहाँ से मोहभंग हो गया। तुर्कपट्टी बाजार से सूर्य मंदिर होते हुए फाजिलनगर तक जाने वाली सड़क गड्ढों में तब्दील हो चुकी है। हल्की बारिश में ही यह सड़क जलमग्न हो जाती है। पूरा परिसर गंदगी से पटा रहता है।
     कुछ वर्ष पहले आए कुशीनगर के एक जिलाधिकारी आर. सैम्फिल ने एक निरीक्षण के दौरान तुर्कपट्टी महुअवां स्थित सूर्य मंदिर पहुँच कर भगवान सूर्य का पूजन अर्चन किया। वहाँ के पुजारी ने मंदिर के महत्ता की कहानी विस्तार से बताई। मंदिर परिसर में मौजूद नागरिकों ने जब उनसे इंटरलाकिंग, पेयजल तथा प्रकाश व्यवस्था की मांग करते हुए सड़कों के जीर्णोद्धार की मांग की तब डीएम ने कार्रवाही का आश्वासन तो दिया मगर अभी कुछ विशेष नहीं हुआ। आज भी सूर्योपासना की परंपरा का प्रमाण देता तुर्कपट्टी का यह सूर्य मंदिर अपने काया-कल्प की बाट देख रहा है लेकिन आस्था से सराबोर भक्तों का मन जाता ही रहता है। भगवान भाष्कर को प्रसन्न करता ही रहता है। 
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