Oct 22, 2014

ऊर्वर मिट्टी के सजग कलमकार


     उत्तर-प्रदेश का सबसे पिछड़ा जिला है कुशीनगर। कुशीनगर की अपनी ऐतिहासिक और धार्मिक महत्ता है। प्रशासनिक रूप से देखें तो कुशीनगर जिला में चार तहसीलें हैं - कसया, हाटा, पडरौना और तमकुहीराज। जब राजतंत्र था, तब बनारस राज्य भूमिहार ब्राह्मणों के आधिपत्य में 1725-1947 तक रहा। बनारस की ही तरह बेतिया, हथुवा, टिकारी, लालगोला और तमकुही भी उनके द्वारा शासित एक बड़ा राज्य था।  आज के प्रजातंत्रीय व्यवस्था में तमकुहीराज एक तहसील है। तहसील होने के साथ ही साथ तमकुहीराज उत्तर-प्रदेश का एक विधानसभा क्षेत्र भी है। इतिहास को देखने पर पता चलता है कि यहाँ के राजा इंद्रजीत प्रताप साही बड़े ही साहित्यिक मिज़ाज़ के तथा कला-प्रिय व्यक्ति थे।
     तमकुहीराज परिक्षेत्र के वर्तमान स्वरूप का आकलन करने के लिए सरकारी दस्तावेज़ों और आकड़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस तहसील में लगभग 395 गाँव है। उनमें से सबसे बड़ा गाँव परसौनी बुज़ुर्ग है, जिसकी 8375 जसंख्या है। पूरे तहसील की जनसंख्या 674720 है, जिसमें 341108 पुरुष और 333614 महिलाएँ हैं। यहाँ की जलवायु सर्वजन अनुकूल है। मिट्टी नम है। नमी के कारण ऊर्वर भी है। यहाँ के खेतों की फसलें तीन-चार माह की बरसात के पानी से लबालब होने के साथ ही त्रिवेणी (नेपाल) से आने वाली पूर्वी गंडक नहर से भी सिंचित होकर लहलहाती हैं।
     इस क्षेत्र ने देश को अनेक राजनैतिक व्यक्तित्व, सामाजिक चिंतक और साहित्यिक सेवक भी दिया है। यह क्षेत्र साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की दृष्टि से उपेक्षित रहा है, परन्तु यहाँ किसी भी प्रकार की कमी नहीं रही है। इस क्षेत्र में लोकमान्य इंटर काॅलेज के प्रधानाचार्य श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव और किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय जैसे लोगों ने साहित्यिक अलख जगाते हुए कई साहित्यकारों को सजाया, सँवारा और अग्रसर किया है। एक उदाहरण का तो मैं स्वयं ही प्रमाण हूँ। इनके अतिरिक्त पंडित सुदामा शुक्ल जी, श्री केदारनाथ मिश्र, सिराज अहमद आदि जैसे अनेक साहित्य-प्रेमियों और सुधीजनों ने भी कहा है और अन्य भी कहते हैं कि इस क्षेत्र की पहली साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ थी। ‘संवाद’ की अनेक सफलताएँ हैं। जुलाई 2001 से प्रतिमाह  दूसरे शनिवार को आयोजित होने वाली गोष्ठियों से ही प्रेरित होकर तमकुहीराज में ‘दीप-ज्योति’, फाजि़लनगर में ‘संस्कार’ तथा गोंसाई पट्टी में ‘भवम भवानी परिषद’ का संयोजन हो रहा है। इन गोष्ठियों से अनेक साहित्यकार परिस्कृत होकर अपनी रचनाओं से विस्मित कर रहे हैं।

पं. धरीक्षण मिश्र - तमकुहीराज क्षेत्र के बरियारपुर की धरती पर जन्म लेने वाले स्व. पण्डित धरीक्षण मिश्र किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं। धरीक्षण मिश्र लोक भाषा भोजपुरी के एक महान साहित्यकार थे। व्यंग्य उनकी प्रकृत विधा थी। काव्य में वे रस, छंद और अलंकार के आग्रही थे। उनकी रचनाओं में अलंकार, छंद-सामर्थ्य की व्यापकता एक गौरव की बात है। प्राचीन आचार्यों की भाँति काव्यशास्त्र की मर्यादा में रहकर काव्य-सृजन के साधक थे। भोजपुरी जैसी लोकभाषा में भी उन्होंने संस्कृत के जटिलतम माने जाने वाले ‘शिखरिणी’ तथा ‘अमृतध्वनि’ जैसे छंदों का सार्थक तथा सफल प्रयोग किया है। यही कारण है कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि के रूप में उनको साहित्यिक जगत में स्थान प्राप्त हुआ। इस नाते प्रख्यात साहित्यकार कवि को भोजपुरी का कबीर कहना नहीं भूलते। वैसे तो वे सामाजिक जीवन की विद्रूपता के कवि थे। समाज के सभी वर्गों पर उन्होंने अपनी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन ‘कवना दुखे डोली में रोअत जाति कनियाँ’ ने तत्कालीन समाज की कुव्यवस्था पर एक लकीर खींच दिया। इसे साहित्यकारों में सबसे पहले धरीक्षण मिश्र ने रेखांकित किया। 
     तमकुहीराज तहसील क्षेत्र के बरियारपुर में चैत राम नवमी के दिन वर्ष 1901 में आचार्य पं. धरीक्षण मिश्र ने एक सम्पन्न परिवार में जन्म लिया। प्राथमिक व मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद इनकी कुशाग्र बुद्धि देख माता-पिता ने वर्ष 1926 में हाई स्कूल की पढ़ाई हेतु लंदन मिशन स्कूल वाराणसी में दाखिला करवाया। पढ़ाई के बाद घर वापस आने पर इन्हें प्रशासनिक पद पर तैनात होने का भी अवसर मिला। जिसे त्याग कर वे गंवई परिवेश में अपनी निजी भूमि पर लगायी गयी वाटिका को पसंद किए तथा वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने भोजपुरी भाषा में लोक से जुड़ी कविताओं, सामाजिक विसंगतियों पर कलम चलाई। छुआछूत के घोर विरोधी रहे कविवर को समाज के अंतिम व्यक्ति के बारे में भी चिंतित होना पड़ा। चाहे कोई भी व्यक्ति हो, बेधड़क सच्चाई बयान करना कवि की विशेष विशेषताओं में था।
     भिखारी ठाकुर की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए धरीक्षण मिश्र ने घर आंगन, बाग-बगीचों, खेत-खलिहानों में बसे गँवई जीवन की कथा-व्यथा को अपने गीतों, कविताओं में बड़ी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति दी है। वर्ष 1977 में ‘शिव जी के खेती’, 1995 में ‘कागज के मदारी’, 2004 में ‘अलंकार दर्पण’, 2005 में ‘काव्य दर्पण’, 2006 में ‘काव्य मंजूषा’, 2008 में ‘काव्य-पीयूष’ के प्रकाशन के साथ ही उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा 1980 में मिले सम्मान के साथ ही ‘अंचल भारती सम्मान’ से राज्यपाल मोतीलाल बोरा द्वारा 1993, ‘भोजपुरी रत्न अलंकरण’ द्वारा अखिल भारती भोजपुरी परिषद लखनऊ 1993 में प्राप्त हुआ। 1994 में श्रीमहावीर प्रसाद केडिया साहित्य एवं संस्कृति संस्थान देवरिया द्वारा ‘श्री आनन्द सम्मान’, 1994 में उ.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन उरई द्वारा ‘गया प्रसाद शुक्ल सनेही पदक’, 1995 में प्रथम विश्व भोजपुरी सम्मेलन देवरिया में पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्रशेखर के हाथों प्रथम ‘सेतु सम्मान’, 1997 में साहित्य आकादमी नई दिल्ली द्वारा ‘भाषा सम्मान’, विश्व भोजपुरी सम्मेलन नई दिल्ली द्वारा 2000 में मरणोपरांत ‘भोजपुरी रत्न’ आदि सम्मान से सम्मानित हुए।
     साधना के रूप में कविता करने के शौकीन इस कवि का व्यक्तित्व नितांत सादगी भरा था। इनकी विलक्षणता की ही देन है कि वर्तमान समय में गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के ‘लोक-साहित्य’ में इनकी कविता रखी गयी है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के अतिरिक्त इग्नू और अन्य कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी रचनाएँ पाठ्यक्रम में स्वीकार की गई हैं। कबीर की तरह विसंगतियों पर प्रहार करने वाले इस कवि ने 1997 के कार्तिक कृष्ण नवमी को बरियारपुर स्थित अपनी कुटिया में महाप्रयाण किया और मरते वक्त राम राम लिखते हुए अंतिम साँस ली।

डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय - डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय रहने वाले बालापार, गोरखपुर के हैं, परन्तु वे किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय सेवरही, तमकुहीरोड में लंबे समय तक प्राचार्य रहे। उनको जानने वाले उनकी भावुकता, संवेदना, सृजनधर्मिता, सहानुभूति और मानवता के कायल हैं। 29 अक्टूबर 1944 को जन्मे डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय की प्रथम पुस्तक ‘बढ़ने दो आकाश’ दोहा-संग्रह के अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के माध्यम से सन 1998 में आयी। उसके बाद 2004 में उनका शोध प्रबंध ‘हनुमद्भक्ति: परम्परा और साहित्य’ तथा ‘बिन पानी सब सून’ निबंध संग्रह के अतिरिक्त संस्मरणात्मक इतिहास पर आधारित ‘मेरा गाँव’ 2009 में, साहित्य अकादमी से, ‘धरीक्षण मिश्र’ (2011) विनिबंध और  दोहा-संग्रह ‘प्रश्न-चिह्न गहरे हुए’ (2011) में प्रकाशित हुए। वे अपनी रचनाओं में अपने अनुभवों को बड़ी सूक्ष्मता के साथ व्यक्त करते हैं। जहाँ उनके निबंधों की बुनियाद आत्मपरकता, आत्मीयता, अनायासता और व्यक्तित्व संपन्नता है, वहीं उनके दोहो में दुनियावी अनुभवों के साथ समयगत सजगता और गतिशीलता भी है। अपने दोहों को पारिभाषित करते हुए वे स्वयं लिखते हैं, -
जब भी जलते पैर हैं, सिर पर पड़ती धूप।
ढल जाती है वेदना, ले दोहों का रूप।।

     डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय की रचनाओं में मूल्यवादी संतुलित दृष्टि का सूत्रपात होने के साथ ही साथ प्रकृति के प्रति सहृदयता झलकती है। सेवरही को कभी ‘गमलों का शहर’ बनाने की कल्पना और प्रयास करते थे। उनकी दृष्टि में आज के गाँवों में भी पुरानी बात नहीं हैं। वे आज अपने मूल्यों और पहचानों को भी परिवर्तित कर चुके हैं। -
द्वेष दंभ हिंसा कपट, निन्दा छल अपमान।
बने हुए हैं आजकल, गाँवों के प्रतिमान।।'

      सन 2006 में अवकाश लेने के बाद तो डाॅ. पाण्डेय साहित्य और साहित्यिक गतिविधियों के प्रति और भी समर्पित हो चुके हैं। वे आज भी कई आयोजनों के निमित्त बन जाते हैं। कई रचनाओं के प्रेरक बन जाते हैं और मेरे जैसे अनेक लोगों को गाहे-बेगाहे निर्देशित और प्रेरित करते हुए साहित्य-सृजन की राह दिखाते हुए अपने जीवन के अनुभवों से रूबरू कराते रहते हैं। उन्होंने पंडित धरीक्षण मिश्र जी रचनाओं ‘काग़ज के मदारी’ (1995), धरीक्षण मिश्र रचनावली-प्रथम खंड (2004), धरीक्षण मिश्र रचनावली-द्वितीय खंड (2005), रचनावली-तृतीय खंड (2006), धरीक्षण मिश्र रचनावली- चतुर्थ खंड (2008) के साथ ही ‘सारस्वत साधना के प्रतीक: आचार्य रामचंद्र तिवारी (2005) का संपादन किया। आज भी अथक रूप से साहित्य को सजाने, सँवारने और समृद्ध करने में लगे हुए हैं। तमकुही की ऊर्वर धरती धन्य है, जहाँ पर ऐसी साहित्यिक शक्तियों ने अपना समय व्यतीत किया और क्षेत्र को साहित्यिक रूप देने में अपनी अहम भूमिका का निर्वहन किया।

आर. डी. एन. श्रीवास्तव - सजग चेतना वालों में सिसृक्षा का बीज बोने के लिए निरंतर तत्पर श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव का जन्म 10 दिसंबर 1939 को ग्राम बैरिया, रामकोला, जनपद कुशीनगर में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया परन्तु रचनाएँ हिंदी में करने लगे। उन्होंने लोकमान्य इंटर कालेज, सेवरही से प्रधानाचार्य पद से अवकाश लिया है। उनकी रचनाओं की धार बहुत ही तीक्ष्ण होती हैं। वे अपने अंदाज़ में ग़ज़ल लिखते हैं, अपने अंदाज़ में पढ़ते भी हैं। उनकी कविताएँ उच्च कोटि के हास्य और व्यंग्य से परिपूर्ण होती हैं। ‘वक्त की परछाइयाँ’, ‘ये ग़ज़ल’, ‘कविता समय’, ‘शब्द कुंभ’, ‘सितारे धरती के’, ‘मोती मानसरोवर के’, ‘नव ग़ज़लपुर’ में संग्रहीत तथा ‘थाल में बाल’ 2010 में, ‘दिल भी है दीवार भी है’ 2014 में प्रकाशित उनके काव्य-संग्रहों में उनके विचारों, मानदंडों और जीवन-मूल्यों को देखा जा सकता है। समय-समय पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से  प्रसारित होते रहने वाले श्री श्रीवास्तव वर्तमान समय में गोरखपुर में रहते हुए आज भी अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हैं। साहित्य-सृजन और कलम की कला का कमाल देखिए कि आज श्रीवास्तव जी का कई और संग्रह  प्रकाशनार्थ प्रेस में है।
      श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव की ग़ज़लें जहाँ अपने मतला, रदीफ़ और काफि़या की बुनावट के लिए समीक्षकों को आकर्षित कर लेती हैं, वहीं अपने विषय-शिल्प, शब्द-संयोजन और चित्र-प्रस्तुति के कारण पाठकों और श्रोताओं को अपना बना लेती हैं। वे जितने सुलझे व्यक्ति हैं उतने ही एक लोकप्रिय प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं। उनकी सोच विलक्षण और भावात्मक होने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबिंब को प्रदर्शित करती हैं। ‘कुत्ता और कर्फ्यू' का कुत्ता किसी रईस के घर का दुलारा टाॅमी या चीकी, पीकी नहीं है, वह सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपने शोषण के विरूद्ध आवाज बुलंद करता है। आज का कुत्ता केवल दुम हिलाता अनुकरण और स्नेह-प्रदर्शन नहीं कर रहा है, वह चीख-चीखकर चिल्लाता है और सामने वाले की मानसिकता को ललकारता भी है। एक उदाहरण देखें - 
जी हाँ,
मैं चीखूँगा, चिल्लाऊँगा और काट खाऊँगा
तुम्हारा ईमान नहीं हूँ जो बदल जाऊँगा।

      कलमकार की सार्थकता सामाजिक सोच की दृष्टि पर ही निर्भर करती है। कलमकार समाज को अपनी ही दृष्टि से देखता है और समाज के सामने उसी का चित्रांकन करता है। श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अपने समाज के नव-रचनाकारों को पहचानते भी है, तैयार भी करते हैं और आगे बढ़ाने का कार्य भी करते हैं। उनकी ग़ज़लें जितना चमत्कृत करती हैं, उनका व्यंग्य उससे अधिक अवाक्। सीधे शब्दों की मारक क्षमता बड़ी तीखी होती है। सहज शब्दों का ऐसा चमत्कार देखना हो तो उनकी किसी भी कविता को देखा जा सकता हैं। दहेज-समस्या पर कुछ पंक्तियाँ देखें, -
स्त्रियाँ अग्नि-शिखा हैं -
कुछ देवियाँ यह धर्म बखूबी निभा रही हैं
बचपन में रोटियाँ जलाईं, जवानी में दिल
बुढ़ापे में बहुएँ जला रही हैं।।

     अगर कभी तमकुही क्षेत्र के कलमकारों की चर्चा हो तो क्या श्री आर.डी.एन. श्रीवास्तव के अवदानों को भूला जा सकता है? उनकी चर्चा के बिना क्या यहाँ की मिट्टी साहित्यिक-समृद्धि का गीत गा सकती है? मैं निश्चिंत भाव से कह सकता हूँ कि मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं होगा।

आचार्य परमानन्द पाठक - लोकमान्य इंटर काॅलेज, जानकीनगर, सेवरही के हिंदी अध्यापक रह चुके आचार्य परमानन्द पाठक हिंदी शिक्षकों में एक अलग पहचान वाले व्यक्ति थे। वे मूलतः बथनाकुटी, गोपालगंज (बिहार) के रहने वाले थे परन्तु कालांतर में उनका कार्यक्षेत्र ही उनका स्थायी निवास बन गया। तमकुहीरोड कस्बे में पुरानी पुलिस चैकी के कोने वाला मकान कौन नहीं पहचानता? श्री पाठक के श्रेष्ठ शिक्षक होने के पीछे उनकी शिक्षा-दीक्षा, उनका निरंतर अध्ययन और लगन था। वे व्याकरण से शास्त्री, आयुर्वेदाचार्य होने के साथ ही हिंदी साहित्यरत्न भी थे। उनकी एक पुस्तक ‘हिंदी व्याकरण प्रदीप’ आदर्श प्रिंटिंग प्रेस तमकुहीरोड द्वारा प्रकाशित है। श्री पाठक ने अपनी इस लघुकाय परन्तु बृहद् व्याकरण की पुस्तक में सभी स्तर के अध्ययेताओं के योग्य सामग्री का समन्वय किया है। इस व्याकरण-पुस्तक में परमानन्द पाठक की योग्यता, मौलिकता, व्याकरण-ज्ञान, स्वाध्याय और उत्तम शिक्षण कला का समन्वय हुआ है। इसमें हिंदी व्याकरण संबंधी प्रायः सभी नियमों और उसके भेदोपभेदों को सहज, सुबोध और रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है।
     एक छोटी सी जगह, सेवरही नगर पंचायत में निवास करने वाले श्री पाठक की ऊर्वरा-शक्ति ही है कि व्याकरण जैसे कठिन विषय पर उन्होंने इस पुस्तक को तब रूप दिया जब वे सेवा-निवृत्त हो चुके थे। क्षेत्र में उन्हें एक लोकप्रिय अध्यापक के साथ ही एक सफल आयुर्वेंदिक चिकित्सक के रूप में भी आदर प्राप्त था।

नथुनी प्रसाद कुशवाहा - भोजपुरी कवि नथुनी प्रसाद कुशवाहा उर्फ रामपति रसिया का जन्म उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में तमकुहीराज तहसील के गाँव मोरवन में 12 दिसम्बर 1948 में हुआ है। पिता मुखी भगत और माता चिरई देवी के लाल रसिया जी भोजपुरी के गीतकार हैं। स्व0 धरीक्षण मिश्र उनके गुरू थे। उन्होंने हाई स्कूल तक शिक्षा ग्रहण की है। गरीबी में तपे रामपति रसिया की रचनाएँ गँवई मन की पीड़ा को बखूबी व्यक्त करती हैं। रसिया जी वर्तमान में सेवरही कस्बे के पास शिराजनगर में पाकड़ के पेड़ के नीचे गरीब बच्चों को पढ़ाते हैं। ये क्षेत्र में आयोजित होने वाले सभी कार्यक्रमों में सरीक होते है। गेय विधा के सिद्ध-हस्त रसिया जी की रचनाएँ अपने निर्गुण रूप के लिए खासी प्रसिद्ध हैं। हाल ही में भोजपुरी भाशा एवं साहित्य का इतिहास तैयार कर रहे डॉ अर्जुन तिवारी ने रसिया जी को अपनी पुस्तक में जगह देकर उन्हें प्रतिष्ठा दी है।  
     रसिया जी उस गँवई माटी की उपज हैं, जहाँ राग है तो द्वेष भी है। स्नेह है तो ईर्ष्या भी है। जीवन की जटिलता को चुनौती देते हुए कवि कभी सामाजिक व्यवस्था को तोड़ता है तो कभी जातिगत जाल को। रामपति रसिया एक विचारशील कवि हैं। उनकी रचनाओं के विषयों में विविधता है। उन्हीं की एक पुस्तक की भूमिका में डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय ने उन्हें एक जन्मना कवि कहा है। वास्तव में रसिया जी की काव्य-प्रतिभा मौलिक है। वे जनकवियों की भाँति लिखने के साथ-साथ अपनी रचनाओं का अत्यन्त सरस रूप में पाठ भी करते हैं। वे भोजपुरी मिट्टी की संतान हैं। उनकी रचनाओं की भाषा भी खाँटी भोजपुरी है। उन्हें कई मंचों पर सम्मानित किया गया है। अब तक उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई है।  पहली ‘अँजोरिया में बदरी’ जीवन ज्योति जागृति मिशन तरया लच्छीराम द्वारा सन 2001 में प्रकाशित हुई थी। दूसरी ‘घेरले बा बदरी’ सन 2008 में प्रकाशित हुई थी। उसी वर्ष युवा विकास मंच, पटहेरवा द्वारा उनकी तीसरी कृति ‘श्रद्धा’ उनके साहित्यिक गुरु ‘पं. धरीक्षण मिश्र की संक्षिप्त चरितावली’ के रूप में प्रकाशित हुई। कुछ पक्तियाँ उनकी पहली कृति ‘अँजोरिया में बदरी’ से प्रस्तुत हैं -
झरि जाई फूलवा रे भँवरा, उजड़ी बगिया तोर।
पिरितिया ना निबही रे भँवरा, मलिया बा कठिन-कठोर।
रसवा के मातल भँवरा, भरमेला चारू-ओर,
अचके आई रे मलिया, लेई फुलवा तोर,
पिरितिया ना निबही रे भँवरा, मलिया कठिन-कठोर।

     अपने साहित्यिक गुरु के प्रति ‘श्रद्धा’ में अपनी श्रद्धा-भक्ति का निवेदन करते-करते वे सजल हो जाते हैं। कुछ पक्तियाँ प्रस्तुत हैं -
आजु हियरा जुड़ाई गइल देखि के तसवीर हो
नजीर रही रहल केहू इहँवा फकीर हो।
नजीर रही रहल केहू .... 
हिंदी अंगरेजी संस्कृत भाषा सिखले
बाप-दादा बोलल वोही भाषा में लिखले
कइले उजियार भोजपुरी के हीर हो
नजीर रही रहल केहू इहँवा फकीर हो।

रामानंद राय ‘गँवार’ - रामानंद राय ‘गँवार’ पेशे से तो पशुचिकित्सक थे परन्तु भोजपुरी साहित्य की साधना के वे बड़े साधक थे। उनकी लेखनी जब भी उठी, भोजपुरी के मान-वर्धन के लिए ही उठी। शैली कोई भी हो, उनकी विधा काव्य ही रही। उनके पास तत्कालीन जीवन और समाज की दषा को देखने और अनुभव करने की एक अलग दृष्टि थी। उनका जन्म 13 फरवरी 1935 को सपहीं खुर्द में हुआ, परन्तु पटहेरवा का ‘गँवार-कुटीर’ किसे याद नहीं है? वे बड़ी खूबी से सामाजिक और राजनैतिक पहलुओं पर नज़र रखते रहे हैं। भोजपुरी भाषा सम्मान सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत श्री गँवार जी का कवि-मन समाज में व्याप्त लूट-खसोट को देखकर द्रवित भी होता है और संवेदनशील भी। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र पूर्णतः लूटतंत्र में परिणत हो गया है। जनता के बीच अपनी दाल गलाने के लिए नेताओं ने अपना पानी उतार दिया है। नेताओं की चतुराई और सरल जनता की त्रासदी पर लिखते हुए वे अपनी ‘गँवार सतसई’ में कहते हैं, -

बइठल धुरतई आज अस, जस सुरसा के गाल।
सब सबके बाटे छलत, अइसन बिगड़ल चाल।।

      आकाशवाणी और दूरदर्शन पर निरंतर काव्यपाठ करते रहने वाले गँवार जी की रचनाएँ ‘संपदा’, ‘भोजपुरी माटी, ‘कुबेरनाथ’ जैसे पत्रिकाओं का मान बढ़ाती थीं। ‘गँवार सतसई’, ‘राग-गँवार’, ‘अइसन हमार ई माटी ह’ जैसी रचनाओं का सृजन करने वाले गँवार जी कई बार सरकारी विचारों-व्यवहारों का भी समर्थन करते नजर आते हैं। जीवन की दैनिकी में न ही वे अपनी माटी को भूलते हें और न ही जीवन की गतिशीलता में माँ के ममत्व को ही। लंबे-चैड़े शारीरिक डील-डौल वाले गँवार जी हृदय के भी विशाल थे। उनकी भावना की सहजता को इस बात से आँका जा सकता है कि जब कभी कोई साहित्य-प्रेमी पटहेरवा से गुजरता, तो वे उसे बुला ही लेते। एक गोष्ठी भी  हो जाती और फिर स्वागत में परोसे गए उनके मालपुआ को कौन भूल सकता है? भले ही उनका देहावसान 3 अगस्त 2010 को हो गया, परन्तु शब्द-ब्रह्म के उस साधक को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। 
      उनके जीवन के अंतिम दिनों में उनकी दो और कृतियाँ ‘शैतान सिंह’ और ‘जवाहर’ आयीं। उनकी रचनाओं पर कई शोधार्थियों ने शोध भी किया है। अब उनके पुत्र उनका जन्मोत्सव एक साहित्यिक आयोजन के रूप में प्रतिवर्ष पटहेरवा में मनाते हैं। उनपर एक स्मृति-ग्रंथ भी तैयार किया जा रहा है। 

दीपराज गुप्त - तमकुहीराज तहसील के ही धुरिया इमिलिया गाँव में जन्मे दीपराज गुप्त ‘दीपक’ पेशे से तो व्यावसायी हैं, परन्तु कलम पर व्यवसाय का बंधन कहाँ? उनका जन्म 19 मार्च 1947 को हुआ। विद्यालयी शिक्षा के नाम पर केवल चार तक ही पढ़ पाए किन्तु उनमें काव्य-प्रतिभा है। शिक्षा से वंचित होने के बाद भी वे कल्पना के धनी हैं। दीपराज गुप्त ‘दीपक’ की कविताओं का क्षेत्र व्यापक है। वे मानव और प्रकृति दोनों को समान संवेदना से देखते हैं। उन्होंने मनुष्य के सुख-दुख, विरह-मिलन, नश्वरता-शाश्वतता का वर्णन तो किया ही है, साथ ही सामाजिक विद्रूपताओं पर सहजता से चोट भी किया है। उनकी कविताओं में दहेज-हत्या, भ्रूण-हत्या, बधू-दहन जैसे सामाजिक विषयों को भी देखा जाता सकता है। एक उदाहरण देखें -
व्यवहार से विचार तक मारल जाईं हम।
बेटी हँई जान के कोख में झारल जाईं हम।।
अगिन परिच्छा ले के त्यागल गइल बानी,
धोबी के बात पर लछना लागल गइल बानी,
अबला नइहर रहत वन उतारल जाईं हम।

आकाश महेशपुरी - तहसील के कलमकारों की सजगता ही है कि इसी क्रम में युवा कवि ‘आकाश महेशपुरी’ और उनकी प्रथम कृति ‘सब रोटी का खेल’ को भी नहीं विस्मृत किया जा सकता। महेशपुरी अपनी लेखनी से सोसल साइट्स पर तो हलचल पैदा किए ही रहते हैं, साहित्यिक संस्था कवितालोक द्वारा कई बार उन्हें सप्ताह का कवि भी घोषित किया जा चुका है। कभी पहली बार ‘संवाद’ की गोष्ठी में अपनी रचना प्रस्तुत करने वाले आकाश महेशपुरी आज युवा कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

रुहुल अमीन अंसारी - तमकुहीरोड के श्री रुहुल अमीन अंसारी अपना परिचय देते हुए स्वयं कहते हैं कि ‘मैं अलबेला बक्से वाला’। रहीम, रसखान और कबीर की परंपरा वाले श्री अंसारी जैसे भारतीय संस्कृति में लिप्त कवियों को ध्यान में रखकर ही कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कहा था, - ‘इन मुसलमान हरिजन पर कोटि हिन्दू वारिये।’ उनके लिए परिश्रम ही खुदा है और सच्चाई ही धर्म। वे आज भी अपने बक्से की दूकान पर बैठकर अपने काँपते हाथों के मंद प्रहार से बक्से को स्वरूप देते हैं और भावों के उमड़ते बादलों के गाँवों में भ्रमण करते हुए कविताओं को छोटे-छोटे कागजों पर लिपिबद्ध करते रहते हैं। वे एक ऐसे साधक हैं जो अपनी खरी-मोहक बातों से ग्राहकों को आकर्षित करते हैं तो अपनी कविताओं से श्रोताओं को विस्मित।

जितेन्द्र पाण्डेय - बिहार की सीमा पर स्थित हफुआ बलराम गाँव के जितेंद्र पाण्डेय नेहरू इंटर काॅलेज से सेवा-निवृत्त हो चुके हैं। श्री पाण्डेय वहाँ हिंदी प्रवक्ता थे। कुछ दिनों तक कार्यवाहक प्रधनाचार्य का भी दायित्व-निर्वहन किए। वे एक कुषल वक्ता, सहृदय व्यक्ति होने के साथ-साथ कवि भी हैं। वे कविता को जितनी ही तन्मयता से लिखते हैं, उतनी ही आत्मीयता से गाते भी हैं। वैसे तो उनकी कोई ग्रंथ प्रकाशित नहीं है, परन्तु उनकी कविता से पूरा क्षेत्र प्रकाशित है।
     रकबा से अवध किशोर यादव ‘अवधू’ ने अनेक कलमकारों को प्रभावित किया है। यहाँ के युवा कवियों में अवधू अपनी प्रतिभा के दम पर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में एक अलग पहचान बना चुके हैं। रविशंकर‘रवि’, अंगद उदास हो या लालमती श्रीवास्तवा ‘ललिता’ या संतोष श्रीवास्तव ‘तनहा’, प्रेमनाथ मिश्र, कृष्ण सिंह ‘चुलबुल’ हों या रामसागर सिंह ‘सागर पावापुरी’ ये लोग तमकुही की मिट्टी के ऐसे कलमकार हैं, जो रोज जीवन की चादर को बुनते हुए साहित्य की दुनिया को बसाते हैं। उत्तर-प्रदेश के सबसे पिछड़े क्षेत्र में रहकर भी ये लोग अपनी साहित्यिक ऊर्वरा से अपना स्थान बनाते हुए देश भर में छा रहे हैं। आज जब मैं अपने सेवरही, तमकुहीरोड से इतना दूर हूँ, फिर भी इन कलमकारों की संगति से अपने को कटा नहीं पाता हूँ। ये अपनी मेधा और प्रतिभा की ताकत और ऊर्जा से मुझे हमेशा प्रेरित करते रहते हैं। देश, राज्य या क्षेत्र की सरकारें भले ही साहित्यिक गतिविधियों पर ध्यान न दे, भले ही कलमकारों को दोयम दर्जें का समझा जाय, मगर इनकी पारदर्शिता, कर्मनिष्ठा और सहृदयता की ही देन है कि आज मेरी लेखनी स्वयं को रोक नहीं पायी। मैं इनके सानिध्य को अनुभव करने लगा। धन्य हैं मेरे यहाँ के वे लोग जिनके लिए न कोई गोलबंदी है, न कोई दिखावे का साधन है और न ही ईष्र्या का कोई कारण। धन्य है वह धरती भी, जो इन सपूतों को जन्म देनेे के बाद भी स्वयं के भाग्य पर घमंड नहीं करती, अपितु और अधिक ऊर्वर होते जाती है।
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                                                  (भोजपुरी-पंचायत' फरवरी 2014 के अंक में प्रकाशित)

1 comment:

  1. आदरणीय पाण्डेय जी आपने हमें जीवंत कर दिया आभार

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