Sep 16, 2014

तजिये वचन कठोर (आलेख)

        भाषा और बोली हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार के दर्पण हैं। हमारे संस्कारों की पिटारी हैं। हमारे ज्ञान और मर्यादा का प्रमाण-पत्र हैं। मीठी बोली से जटिल समस्या भी हल की जा सकती है। भाषा और शब्द कितनी अहमियत रखते हैं हमारी जिन्दगी में, अगर हम अपने आदर्श विद्वानों का अनुकरण करें तो सहज ही स्पष्ट हो जाता है। भाषा और मधुरता का आपस में गहरा संबंध नहीं होता तो कबीर दास ऐसे क्यों कहते कि - 
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय । 
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
    शब्दों और भाषाओ के सहारे मन का भड़ास निकालने के चक्कर में हम भाषा की ही मर्यादा भूल जाते है। भूल जाते है कि शब्द-ब्रह्म को व्यक्त करने के बाद वापस नहीं किया जा सकता। अंग्रेजों से प्रताडि़त जनता को उसका अस्तित्व याद दिलाने के लिए भारतेंदु जी ने शब्दों की गरिमा बनाते हुए ही कहा था कि -
निज भाषा उन्नति अहै, सबै उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय का शूल।।   
     सोसल साइट्स आज मन की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम ही नहीं, मन को जोड़ने का भी साधन है। मन का राग-द्वेष, पीड़ा-शूल सब कुछ सहन करते ये अभिव्यक्ति के माध्यम कुंठित और प्रफुल्लित हृदय की भी अभिव्यक्ति हैं। अभिव्यक्ति के इन्हीं माध्यमों को दस्तावेज के तौर पर देखें तो लोगों की बेबाक एवं अवाक् टिप्पणियों से शब्दों का महत्त्व और मायने साफ हो जाता है। साफ हो जाता है कि कितने मायने रखते हैं वे शब्द जो हमारे मुखारबिंद से निकलते हैं और कितना उनका असर होता है सामने वाले पर और खुद अपने ही व्यक्तित्व पर। शब्द ही हमारे मान, प्रतिष्ठा और मर्यादा को निखारते हैं - 
रहीमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरै, मोती, मानुष, चून।।
     मनुष्य खामियों का पुतला है - ईर्ष्या, द्वेष, प्यार, संवेदना और क्षोभ जैसे भाव मनुष्य के स्वभाव में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं। ये गुण ईश्वरीय वरदान है मनुष्य के वृत्तियों के लिए। इन गुणों पर काबू पाना बेहद कठिन होता है। जो लोग काबू पाने में सफल हो जाते हैं,  वे मानवता की श्रेष्ठता को प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज के आदरणीय महापुरुष या संन्यासी की श्रेणी में आ जाते हैं। आज तो मानव अपने थोड़े से शब्दों के ज्ञान के दंभ में स्वयंभू महान बनने का भ्रम पाल लेता है। महानता के भ्रम में जबान को बेलगाम छोड़ देता है। जीवन की कठोरता और सच्चाई का अनुभव किए बिना ही लोहे की कठोरता का अनुभव बताने को तो मैं महान नहीं कह सकता। अज्ञेय जी के शब्दों में लोहे का सच्चा अनुभव तो वह घोड़ा ही बता सकता है, जिसके मुँह में लगाम है, - 
लोहे का अनुभव
लोहे से मत पूछो,
लोहे का अनुभव
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
     अर्थात बेलगाम होकर लोहे के अनुभव को बताना अपने-आप को घोड़े से भी गया-गुजरा समझना है। वह इंसान तो है नहीं। चाहे तो वह अपने को देवता समझे या और कुछ, परन्तु भाषा तो खुद इंसान का बनाया माध्यम है। मनुष्य ने भाषा की सर्जना अपनी सुविधा के लिए, अपने भावों को प्रदर्शित करने के लिए बनाया है। जब भाषा मानव-निर्मित है तो उस पर काबू पाना उसके लिए इतना कठिन नहीं होता। भाषा ही तो कोयल और कौवे में भेद का माध्यम है। 
     हमारे मुँह से निकला एक शब्द हमें यदि किसी के करीब ला सकता है तो दूसरा ही शब्द दूरियों का कारण भी हो सकता है। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि क्या फर्क पड़ता है कि किसने क्या कहा? क्यों कहा? परन्तु फर्क तो पड़ता है। किसी से परिचय का पहला माध्यम हमारे शब्द ही होते हैं, और उससे आगे के बने संबंध भी उन्हीं शब्दों पर ही टिके होते हैं। हालाँकि हमारे द्वारा किसी के लिए भी प्रयुक्त अपशब्द उसका कुछ बिगाड़ लेते हैं ऐसा कम ही देखने में आता है, ज्यादातर ये शब्द हमारे अपने ही व्यक्तित्व को खराब करते हैं। हमारी अपनी ही छवि के लिए हानिकारक होते हैं। अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर हम यह सुनते आये हैं  कि अपशब्द बोल कर अपनी जीभ खराब नहीं करना चाहिए,- 
मधुर वचन है औषधि, कटु वचन है तीर।
श्रवण द्वार हौ संचरे, साले सकल सरीर।।
     मीठी भाषा से ना केवल सामने वाले पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है बल्कि हमारा व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है। कटु शब्दों के प्रयोग से संभव है कि आपका मन हल्का हो जाए परन्तु लम्बे समय के लिए वह आपके लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है। जोर जबरदस्ती से या कटु वचनों से मान-सम्मान तो आप हासिल कर ही नहीं सकते, ना ही कोई मन से आपका कार्य ही करेगा। किसी के लिए वही शब्द इस्तेमाल करने चाहिए, जिन शब्दों की उम्मीद हम अपने लिए करते हैं। कटु वाणी के प्रयोग का परिणाम बहुत भयंकर हो सकता है। द्रौपदी के द्वारा दुर्योधन को बोले गए कटु वचन महाभारत का एक कारण बने। इसका परिणाम कितना भयानक हुआ यह तो सर्व विदित है। जहाँ वाणी में माधुर्य होता है, वहीं ज्ञान और विवेक भी होता है। वाणी में मधुरता, प्रियता और सत्यता के समन्वय से जीवन में आनंद मिलता है। हमें सदैव ऐसी वाणी और शब्दों से बचना चाहिए जो औरों को ठेस पहुंचाए। विद्या ददाति विनयम् तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं, तो अहं में आपा खो कर हम भूल कैसे जाते हैं? कबीर दास ने कहा है -
बोली एक अमोल है,जो कोई बोली जानी।
हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आनी।।
    मृदुल शब्दों से मान, सम्मान, इज्जत, प्यार पाया जा सकता है। हो सकता है कि भय या कटु वचनों से इसका दिखावा मिल जाये, पर सच्चे भावांे को नहीं पाया जा सकता। आज का दंभी मनुष्य केवल वट-वृक्ष ही बनना चाहता है। वह समाज, साहित्य, भाषा, अधिकारों का नगाड़ा बजाता हुआ ठेकेदार बन जाता है। अपने तल के अंधकार को नजर अंदाज करके दूसरे के बल पर अंगुली उठाता रहता है। सफलताओं का भूखा मनुष्य सफलताओं के लिए परिश्रम नहीं करता, दर्पण को दोषी मानता है। खंभा नोचता है। नहीं कुछ होता तो अपने ही गाल पर थप्पड़ मारता है। आगे बढ़ने के लिए दोड़ता नहीं, दूसरे के पैर में लंगड़ी मारता है। भाषाओं से जीवित आज का साहित्य राजनीति के गुटबंदियों में बंद होता जा रहा है। समाज का दर्पण तो दूर, समाज के लिए कुछ अर्पण भी नहीं कर रहा। कलम चलाता कलमकार सबसे पहले अपनी जेबें देखता है। रोटी देखता है। दुनिया की इन सच्चाइयों में मधुर वचन से बैर करने लगता है। अपनी झल्लाहट को झेलता मनुष्य कटु वचन का प्रयोगी हो जाता है। मैं तो ऐसे मनुष्यों से प्रार्थना करूँगा कि कटुता से कुछ प्राप्त नहीं होता। तुलसी बाबा ने भी कहा है -
तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजे चहुँ ओर।
वशीकरण यह मंत्र है, तजिये वचन कठोर।। 
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                                                         - केशव मोहन पाण्डेय 

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