Sep 19, 2014

ज़ाहिल (लघुकथा)


     सौंदर्य के साथ आकर्षण तो होता ही है, मौन का भी बराबर ही साहचर्य होता है। मोहित पहली बार नर्मदा के तट पर था। उसकी स्वच्छता, हरित-नीलाभ मिश्रित जल-राशि का सौंदर्य तो था ही, अभी-अभी संपन्न हुए छठ-पूजा के शेष चिन्हों को देखकर वह गर्वित अनुभव कर रहा था। ठेंठ गुजरात में ठेंठ रूप में छठ पूजा। भरुच के नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर का भी सौंदर्य था, लोगों के आने-जाने और विश्राम का भी सौंदर्य था। सौंदर्य की उस शांति में भी मोहित के मन में शोर हो रहा था। वर्तमान परिस्थिति और आकांक्षा के द्वंद्व का शोर। है और होने के बीच का शोर। मोहित और उसके अस्तित्व-बोध के बीच का शोर। 
    तभी मंदिर में एक परिवार आया। एक युवती, एक बच्चा और माता-पिता। स्वभावतः बच्चा इतना खुला स्थान पाकर खिलखिलाता दौड़ा और उस छठ-पूजा के समय चढ़ाई गई सामग्रियों के कारण फिसलता बाउंड्री-वॉल से टकराया। अगर दीवार नहीं होती तो शायद सीधे नर्मदा में ही जाता। 
     पिता ने वहाँ पूजन करने वालों को गाली देते हुए ज़ाहिल करार दिया। तड़पती माँ ने बच्चे को झाड़-पोंछकर गले लगाया। पति के जबान को रोकते हुए बोली, - 'मंदिर में आकर आपका ऐसा बोलना आपके शहरी होने का प्रमाण तो नहीं देता।'
यह सुनकर युवती मोहित को देखने लगी। अब उसके मन का शोर भी मौन हो गया था। 

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