Sep 19, 2014

जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं?

    इस बार मन में ठान लिया था कि 'भोजपुरी पंचायत' पत्रिका के अगस्त अंक के लिए स्वतंत्रता दिवस से प्रेरित लेख होना चाहिए। एक-दो दिन से संपादक जी के फोन का भी दबाव था। लिखने की बेचैनी तो थी, भावों का संसार भी बस रहा था। कुछ फ्रेम तैयार नहीं हो रहा था कि एकाएक रियलिटी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के अगले सीजन के प्रोमो पर नज़र ठहर गई। ‘जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं?’  . . . . लगा कि अब कुछ हो जाएगा। उस प्रोमो को देखकर भी कुछ हो जाता है। प्रोमो में बिग बी पूर्वोत्तर की लड़की से प्रश्न पूछते हैं कि ‘कोहिमा किस देश में है?’ चार विकल्प दिए जाते हैं, - भारत, भूटान, नेपाल और चीन। प्रतिभागी लड़की इसके लिए ‘ऑडियंश पोल’ लाइफ लाइन लेती है। सभी ऑडियंश का एक ही जवाब होता है - भारत। अमिताभ बच्चन कहते हैं कि सौ प्रतिशत लोगों ने कहा है - इंडिया। यह बात तो सभी जानते है। इस पर कंटेस्टेंट जवाब देती है, - ‘जानते तो सब हैं, पर मानते कितने हैं?’ कई समीक्षक इस प्रोमो को देश को जोड़ने और दिल को छू लेने वाला बता रहे हैं। कई विरोध भी कर रहे हैं, पर मैंने अपने लाभ की चीज ले ली। 
     मैंने छात्र जीवन से लेकर आज तक पंद्रह अगस्त को हर साल कुछ अलग-अलग ढंग से आते देखा है। बचपन में सफेद कागज़ को गेरू, हरे रंग आदि से रंग कर तिरंगे की शक्ल में स्कूल में ढोया है। आज छुट्टियों का आनन्द लेता हूँ। पंद्रह अगस्त तो हर वर्ष आता है, आगे भी आकर चला जाएगा। स्वतंत्रता दिवस पर समारोह मनाना अपनी सशक्त जिम्मेदारी समझते हैं। समारोह मनाकर अपनी जिम्मेदारियों से इति श्री कर लेने में ही खुश हो जाते हैं। आजादी की वर्षगाँठ मनाने के साथ ही कुछ भारतीय अपने बहुत सारे फालतू समय में से कुछ समय निकालकर यह सोचने कि चिंता प्रस्तुत करते हैं कि क्या आज वाकई मैं हम स्वतंत्र है? यदि नहीं तो फिर यह समारोह क्यों? हम समारोह नहीं भी मनाएँगे तो भी इसका कोई विशेष असर देश की सेहत पर नहीं पड़ेगा जितना कि बुरा असर वर्तमान में महँगाई, भ्रष्टाचार, जम्मू-कश्मीर की हिंसा और अतिक्रमण, देश में फैल रहे नक्सलवाद और पूर्वोत्तर राज्यों में चल रही नाकेबंदी से पड़ रहा है। 
     आज की विचारधाराएँ बदल गई हैं। समय बदल गया है। राजनैतिक सोच बदल गई है। सामाजिक संदर्भ और हालात बदल गए हैं। आज कही भी देश की चर्चा प्रारंभ होते ही हम गतिशीलता और विकास का दम भरते हैं। यहीं है विकास कि मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 76 किमी दूर चुगा नदी पर बना चुगा बाँध 29 वर्षों में जाकर पूरा हुआ है। झारखंड की नार्थ कोयल या बटाने जलाशय परियोजना। बटेश्वरनाथ, तिलैया झाझर परियोजना के साथ ही बिहार की धनाजरै फुलवरिया जलाशय परियोजनाओ के अतिरिक्त कई बाँध और बिजली परियोजनाएँ 35 वर्षों से जहाँ की तहाँ पड़ी हुई हैं। केवल उत्तर-प्रदेश में ही एक हजार करोड़ से अधिक की अनेक परियोजनाएँ राजनीति की चक्की में फँसी हुई हैं। अच्छे दिन की कल्पना में जनता जून की कैरियों में एक ही महिने में जुलाई का पका आम ढूँढ रही है कि हमने कैरियाँ देखीं, अब आम का स्वाद चाहिए। विदेशों में जाकर बस रहे डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, आईटी प्रोफेशनल्स, अंतरिक्ष विज्ञानी आदि इस बात का सबूत हैं कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, मगर देश में इनके लिए अवसर नहीं हैं। जो अवसर पैदा करने का खाका खींचे वह राजनीति-प्रेरित कहलाता है। कम इन्फ्रास्टक्चर में कम ही अवसर मिलेगा। अवसर बढ़ाने के लिए इन्फ्रा बढ़ाना पड़ेगा। इन्फ्रा बढ़ाने में समय लगेगा। समय की प्रतीक्षा के लिए हम सभी को सहनशीलता दिखाना चाहिए।
     जो है उससे सबको बहुत असंतोष है। जो नहीं है, उसकी कल्पना में मन मचला जा रहा है। बहुत चिंता है। चिंता और विरोध के अंधकार में हम जो है उसकी सुन्दरता को देख ही नहीं पा रहे हैं। हम देख ही नहीं पा रहे हैं कि परिवार में आपसी कलह भले होता है, मगर कोई गैर हस्तक्षेप करे तो सभी एकजूट होकर उसका मुँह तोड़ने को तत्पर हो जाते हैं। हम देख ही नहीं पा रहे हैं कि भारत उनतीस राज्यों का समुच्चय होते हुए भी एकता के सूत्र में एकीकृत है। हम भारत के विविधता में दृढ़ता की कथा को समझ ही नहीं पाते। हम असंतुष्ट होने का परिचय तो देते हैं, परन्तु एकीकृत होने की खुशहाली को अनुभव ही नहीं कर पाते। ऐसे में जब आदमी स्वयं के वैभव से असंतुष्ट रहेगा तो गैर हाथ साफ करेगा ही। यहाँ प्रोमो की लड़की का संवाद याद आता है कि हम सब स्वतंत्रत हैं, जानते भी हैं, आदर भी करते हैं, पर स्वयं से असंतुष्ट होने के कारण मानने को तैयार नहीं रहते। नहीं रहते तो ऐसे विचार रखने वालों को सावधान होना पड़ेगा। आपके विरोध का अगर थोड़ा भी स्वरुप विकृत हुआ तो वह देशद्रोह का भी नाम हो सकता है।
     अगर हम इन राष्ट्रीय पर्वों के झरोखे से ही देखें तो पता चलेगा कि अपने भारत के कई रूप हैं। सृष्टि के सृजन से लेकर प्रथम मानव के साथ आज का गतिशील भारत अनेक रूपों में दिखाई देता है। पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस को परिस्कृत हुआ भारत आज भी समय-समय पर विश्व समुदाय में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है। आज का भारत विकासशील होते हुए भी बहुत कुछ प्राप्त कर चुका है। कर रहा है। सशक्त भी है। प्रेम का पुजारी तो सनातन से रहा है, आज का भारत निर्भय भी है। आज हम विश्व की संकीर्णता के घेरे को पार कर चुका है। अनेक बार शत्रुओं का संहार कर चुका है। सत्य की गहराई में गोता लगाकर सत्य बता चुका है। सत्य सिद्ध कर चुका है। आज का भारत अथक परिश्रम कर के पहाड़ों का सीना चीर कर रेल और सड़कें बिछा चुका है। आगे कर भी रहा है। नदियों के नव उन्माद को कठोर बाँधों से काबू में कर के विद्युत पैदा कर रहा है। आज भी भारत तर्क-शक्ति में प्रखर है। पावन आचरण से अमृत बरसाने वाला है। 
     भारत में शौर्य है तो सुन्दरता भी कम नहीं है। भूख है तो भावना भी कम नहीं है। यहाँ के भौगोलिक परिक्षेत्र में रेतों का अंबार है तो वनों का आच्छादन भी है। शुष्कता का कहर है तो जल का आप्लावन भी है। भारत सतत् विशालता को चाहता है। यह देश विशाल भू-भाग पर फैला है। यह देश उदारमना मनीषियों का देश है। यह विचारशीलों और कर्मयोगियों का देश है। यहाँ ‘सर्वे संतु निरामया’ की कामना की जाती है। यहाँ पर प्रत्येक के मानस में ‘वसुधैव-कुटुम्बकम्’ की ऋचा-वेणी प्रवाहित होती है। सबके श्वाँस से ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का गंध स्फूटित होता है। यह देश सभी धर्मों का है। सामासिकी संस्कृति का एक मात्र उदाहरण है। भारत की इसी भावना ने तो इसे चिरंतन स्वतंत्र, अखंड और अमिट बनाया है। 
      आज के क्लिक के इस दौर में, जहाँ सिक्स पैक एब्स सबसे बड़ी चाहत हो, जहाँ हर चमकती चीज को सोना बता कर बेचा जा रहा हो, जहाँ गुगल गाॅड के बदौलत चुटकियों में ज्ञान मिल रहा हो और जहाँ भ्रष्टाचार, घृणा फैलाने और अपराध के संगीन आरोप के बीच भी लोकतंत्र के कई अप्रिय नायक बार-बार चुने जा रहे हों, जहाँ कॉस्मोपॉलिटन प्रांतीय नेताओं की नई पीढ़ी भी जातिगत राजनीति में डूबी हो, जहाँ ‘वादा तो टूट जाता है’ के तर्क पर वादे बहुत और नतीजे बेहद कम आते हों और जहाँ कामयाबी का मतलब भगवान वामन की तरह दो पग में जग नापने जैसी बात हो गई हो, वहाँ आज हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस का औचित्य क्या है? आज का मनुष्य अपने कुतर्कों से अपने पक्ष में चाहे लाख दलीलें तैयार कर लें, लेकिन स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय के लिए एक उत्सव है। इस उत्सव पर हम मन-ही-मन स्वयं से एक वादा करते हैं कि हर हाल में हम अपनी आजादी को संभालकर रखेंगे। अपनी असंख्य विशिष्टताओं से संसार में अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका भारत निरंतर ही विकास के सोपान पर नव-गति से आरोह कर रहा है। 
     जहाँ आज़ादी के लिए देश ने बहुत कुछ खोया, वहीं आज आज़ादी के बाद बहुत कुछ पाया है। भारत की पावन धरती पर निरंतर नवीन संरचना को देखा जा सकता है। मेरे काॅलेज के दिनों तक भी जिन गाँवों-देहातों में जाने के लिए निश्चत पगडंडियाँ तक नहीं होती थीं, वहाँ आज बलखाती सड़कें दौड़ने लगी हैं। माह बीत जाने पर भी जहाँ किसी परदेशी का संदेश नहीं पहुँच पाता था, वहाँ आज परिवार के प्रत्येक सदस्य के हाथ में मोबाइल बजने लगा है। जहाँ हजारों बस्तियाँ अंधेरी रात द्वारा लील ली जाती थीं, वहाँ अब रौशनी के तार दौड़ गए हैं। मनोरंजन के लिए नाच़-नौटंकी तक ही सिमटे लोग अब दूरदर्शन के सैकड़ों चैनलों में भटक रहे हैं। ‘छोटा-परिवार’ के विज्ञापन के साथ ‘वहीं सिकंदर’ के मजमून को समझने लगे हैं और नए फैशन पर बहकने लगे हैं। भारत के कण-कण में जानने के साथ-साथ मानने के लिए भी बहुत कुछ है। विकास की सच्चाई है तो औद्योगिक संपन्नता का शंखनाद है। 
    विकास की सत्यता के साथ ही यह भी निर्विवाद स्वीकार्य है कि इस पाने के क्रम में मनुष्य ने बहुत कुछ खोया भी है। भीतर का मनुष्य मरा है। संवेदनाओं की ज़मीन और सिकुड़ी है। जागरूकता का क्षेत्र छोटा हुआ है। अंदर का जानवर जवान हो गया है। आए दिन जननियों, बहनों, बेटियों के अस्मतों को रौंदने के मेले का आयोजन हो रहा है। घुसपैठिये अपने नापाक ईरादों का दस्तावेज़ पेश कर रहे हैं। आम जनता विवशता की गाड़ी को बड़ी ही बेचारगी से खींच रही है। सामाजिकता का स्वरूप व्यक्तिगत मुखौटों में कैद है। परमार्थ मारा जा रहा है। स्वार्थ का अर्थ सबने समझ लिया है। स्वतंत्रता से असंतुष्टि है और गणतांत्रिक स्वरूप विखंडित हो रहा है।  बात-बात में दंगे अपना दाँत दिखाकर डराने गले हैं। देश की इन विसंगतियों में केवल राजधानी ही नहीं, उनमें सरीक होता आम आदमी भी जिम्मेदार है। बात फिर वहीं उठती है कि इन विसंगतियों का दुष्परिणाम हो या इने दोषियों की बात हो, उनका देश के लिए घातक होना जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं? देश के लिए सभी पक्षों को भी जानते सभी हैं, पर स्वीकार करने में अभिमान आड़े आ जाता है। भले ही देश का स्वाभिमान बलि चढ़ जाए, मगर झूठा अभिमान न कम हो की भावना पता नहीं हमें कहाँ लेकर जाएगी?
     हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति समन्वयात्मक है। इसे सुदृढ़ करने में जितना योगदान पण्डितों-ज्ञानियों का है, उतना ही साधु-संन्यासियों का है। इस संस्कृति को ख्वाज़ाओं ने भी सँवारा है तो पीर-औलियों ने भी, मस्जि़द के मुल्लाओं ने भी। गुरुनानकदेव ने भी, उनके वंशजों ने भी, ईशु के अनुयायियों ने भी, बुद्ध और महावीर जैन के साधकों ने भी। हमें किसी भी स्थिति में नहीं भूलना चाहिए कि यह देश एक राष्ट्रपति, एक प्रधानमंत्री और एक राजधानी का देश है। एक गान और एक तिरंगे का देश है। यह कश्मीर का भी देश है और कन्याकुमारी का भी। यह अमृतसर और गुवाहाटी का देश है। बर्फ से पठार तक का देश है। थार से चेरापूँजी और मासीनराम का देश है। रेतीले रेगिस्तान का भी देश है, मूसलाधार वर्षा का भी देश है। अपना देश सूखे का है तो तूफानों का भी है। कावेरी और महानदी का है। कोसी और गंडक का है। जल के विवाद का है। जल से त्रासदी का है। इस धरती पर आज भी किसी-न-किसी कोने में राम-कृष्ण और बुद्ध मिल जाएँगे। कही हज़रत निज़ामुद्दीन भी मिल जाएँगे तो वहीं किसी ठाँव सलीम और मोइनुद्दीन चिश्ती भी गलबाँही करेंगे। देश के अनेकता की साक्षी पंचतारा होटले हैं तो फूटपाथ की जि़ंदगी भी है। दोनों ही जगह कोई भेदभाव नहीं रहता।
    हर बात में अपनी असंतुष्टि प्रकट करने वालों! भारत देश को एक बार समझ कर तो देखो। आपकी पहले वाली समझ बदल जाएगी। विकास की गति को छलावा कहने वालों का स्वर बदल जाएगा। अब तो हर जगह शहर-ही-शहर, गाँव-ही-गाँव। दिल्ली के दरबार से नित-नए समाचार तक। शहरी आकर्षण से गाँव-जवार तक। चारों और विविधता तो दिखाई पड़ेगा, मगर उनके जब हम गौर से देखें तो सबका मन एकता के धागे से एकीकृत दिखाई देगा। देश की यहीं अद्भुत गाथा है कि अनेक विविधता के बीच भी देश अबाध गति से प्रगति कर रहा है। प्रगति के इस युग में हम भी सम्मिलित हैं, हम भी लाभान्वित हैं परन्तु हम भी असंतुष्ट हैं। फिर वहीं यक्ष-प्रश्न समक्ष होता है कि इन सब बातों को जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं? कई बार मैं भी तो नहीं मानता। कई विचारधाराएँ मेरे लिए भी तो असह्य हैं। तो क्या प्रगति में हिस्सेदार बनने की अपेक्षा सिर पीटता रहूँ? कम से कम अपने अमर शहीदों को नमन करने के लिए ही सही, पंद्रह अगस्त को एक उत्सव का स्वरूप तो देना ही चाहिए।
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                      (यह लेख 'भोजपुरी-पंचायत' पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित हो चुका है।)

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