Sep 16, 2014

‘आत्मसंघर्ष की चिनगारी से शक्ति मिलती है’ (साक्षात्कार)

        प्रतिष्ठित प्राचार्य, जाने-माने कवि, बेबाक समीक्षक और निश्पक्ष संपादक डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय, वैसे तो हिंदी साहित्य में किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं, मगर उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के अनेक अनछुए पहलू हैं, जिसके विषय में जानने के लिए मेरा मन करीब ग्यारह वर्षों से बेचैन रहा है। वैसे तो वे रहने वाले बालापार, गोरखपुर के हैं, परन्तु वे किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय सेवरही, तमकुहीरोड (कुशीनगर) में प्राचार्य रहे। उनको जानने वाले उनकी भावुकता, संवेदना, सृजनधर्मिता, सहानुभूति और मानवता के कायल हैं। डाॅ. वेदप्रकाश पाण्डेय की प्रथम पुस्तक ‘बढ़ने दो आकाश’ दोहा-संग्रह के रूप में अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के माध्यम से सन 1998 में आयी। उसके बाद 2004 में उनका शोध प्रबंध ‘हनुमद्भक्ति: परम्परा और साहित्य’ और ‘बिन पानी सब सून’ निबंध संग्रह के अतिरिक्त संस्मरणात्मक इतिहास पर आधारित ‘मेरा गाँव’ 2009 में, साहित्य अकादमी से, ‘धरीक्षण मिश्र’ (2011) नामक विनिबंध-संग्रह और ‘प्रश्न-चिह्न गहरे हुए’ 2011 में दोहा संग्रह के रूप में आयी। वे अपनी रचनाओं में अपने अनुभवों को बड़ी संजीदगी के साथ व्यक्त करते हैं। जहाँ उनके निबंधों की बुनियाद आत्मपरकता, आत्मीयता, अनायासता और व्यक्तित्व-संपन्नता है, वहीं उनके दोहों में दुनियावी अनुभवों के साथ समयगत सजगता भी है। पिछले दिनों उनके दिल्ली आगमन पर मुझे मौका मिल गया और मैं अपनी जिज्ञासाओं के साथ उनके पास पहुँच ही गया।  प्रस्तुत है साहित्य के अनेक पहलुओं पर हुए उनसे बातचित का मुख्य अंश  -
प्रश्न  - गोरखपुर से सुदूर, उत्तर-प्रदेश के सबसे पूर्वी छोर, बिहार की सीमा पर स्थित एक ग्रामीण अंचल के महाविद्यालय की व्यस्ततम जीवन-चर्या से भी निकल कर एक-दो नहीं बल्कि लगभग 12 पुस्तकों के लेखन-संपादन के साथ अध्यापन, अनेक कार्यक्रमों के आयोजन और अब सेवानिवृत्ति लेकर भारत-भ्रमण तथा एकनिष्ठ भाव से साहित्य-सेवा में संलग्नता। इस लंबे सफर में आपकी साहित्यिक गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में कौन-कौन सी चुनौतियाँ आईं? सबसे गंभीर चुनौती आप किसे मानते हैं? उस चुनौती से आपने किस प्रकार निजात पाया?
उत्तर - प्रिय केशव जी, प्राचार्य के रूप् में कार्य करते समय मेरे सामने सबसे बड़ी चुनौती समयाभाव की थी। मैं महाविद्यालय के निर्माण और संचालन के प्रति इस कदर समर्पित था कि मुझे दूसरा काम सुझता ही नहीं था। साहित्य-सृजन या किसी कला-साधना के लिए जिस मानसिक एकाग्रता की जरूरत होती है, उसका नितान्त अभाव था मेरे पास। यह तो सृजन का गहरा दबाव था कि उस काल-खंड में भी कुछ हो गया। दूसरी बात यह है कि जब कुछ करने की मानसिकता प्रबल हो जाती है तो विषम परिस्थितियों में भी व्यक्ति कुछ रच लेता है। किसी कवि ने कहा भी है - ‘‘कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं, मन चाहिए।’’
प्रश्न - आप मूल्यों और नैतिक मानदंडों में विश्वास रखने वाले व्यक्ति हैं। आपके विचार से क्या किसी लेखक के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता आवश्यक है? 
उत्तर - देखिए केशव जी, मेरा अपना विश्वास मूल्यों में है। नैतिकता के प्रति मेरा मन आग्रहशील भी है। लेखन के प्रति मेरी किसी भी किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है। मैं सृृजन के क्षेत्र में किसी वैचारिक प्रतिबद्धता का कायल नहीं हूँ। सृजन की भूमि किसी सीमा को स्वीकार नहीं करती। यह एक मुक्त क्षेत्र है। हाँ, कुछ लोग लेखन के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता मानते हैं। उनकी वे जानें।
प्रश्न - सर, आप कष्टों में समय व्यतीत किए हैं, प्राचार्य के रूप में एक प्रशासक का भी जीवन जीये हैं, साहित्य-सेवा में एक अग्रणी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं, अनेक मंचों और संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी हुए हैं। अगर आपको उसमें से कोई एक काल-खंड चुनना हो तो आप पुनः कहाँ पहुँचना चाहेंगे? क्यों?
उत्तर - यह सही है कि मेरी निजी जिंदगी की पृष्ठभूमि वैविध्यपूर्ण रही है। ऐसा किसी के साथ भी संभव है। हाँ, अगर मुझे उनमें से किसी एक का चुनाव करना हो तो मैं साहित्य-सेवा के साथ-साथ समाज और पर्यावरण के लिए काम करना चाहूँगा। संप्रति सामर्थ्य भर मैं यह कार्य करता भी रहता हूँ।
प्रश्न - सर, कहा जाता है कि एक साहित्यकार हमेशा आर्थिक रूप से कमजोर होता है। आपके विचार से आज का साहित्यकार समाज में कहाँ दिखाई दे रहा है?
उत्तर - ऐसा नहीं है। बड़े और प्रतिष्ठित साहित्यकार कभी अभाव में नहीं थे। आज भी नहीं हैं। हाँ, अपवादों को छोड़कर उनके पास इतना नहीं होता कि इतराया जा सके। अच्छे साहित्यकारों की समाज में सदा प्रतिष्ठा रही है। आज भी है।
प्रश्न  - प्रशासक, निबंधकार, कविकर्म और संपादन, ये सब अलग-अलग विधाएँ हैं। सर, आपने इन सबको कैसे साधा?
उत्तर - केशव जी, सध गया। ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’ आपने नहीं सुना है क्या?
प्रश्न - आज का साहित्यकार पुरस्कार और पद-प्रतिष्ठा के लालच में पूरी तरह से संलिप्त रहता नज़र आ रहा है। ऐसे में एक लेखक अपनी लोकमंगल की जिम्मेदारी कैसे निभा सकता है?
उत्तर - ऐसा नहीं है। आज का हर साहित्यकार पद और पुरस्कार की दौड़ में नहीं है। बहुतेरे हैं भी। ऐसा स्वाभाविक भी है। पद, पुरस्कार और प्रतिष्ठा कौन नहीं चाहता। हाँ, कुछ इसके लिए जोड़-तोड़, दंद-फंद करते हैं, कुछ शांत-मौन साधना में लगे रहते हैं। आज की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। पद-प्राप्ति हो या सम्मान-पुरस्कार, सबका एक गणित है। कुछ लोग इसमें माहिर हैं। फिर भी जो साहित्य के सच्चे साधक हैं, वे किसी गणित के चक्कर से दूर अपनी साधना में मस्त हैं। वे लोकमंगल के कार्य में लगे हुए हैं।
प्रश्न - पिछले कुछ सालों में लेखक-पाठक संबंधों में काफी बदलाव आया है। इसके साथ ही लेखक बढ़ते गए और पाठक घटते गए हैं। आपके विचार से इसका सबसे खतरनाक रूप क्या है और क्यों? 
उत्तर - सामान्यतः लोग यह मानते हें कि साहित्य के पाठकों की संख्या घटी है। पर वास्तविकता इससे भिन्न है। सतही और सस्ते साहित्य के पाठक वस्तुतः कम हैं। अच्छे-उत्कृष्ट साहित्य के पाठक आज भी बहुत हैं। पिछले दिनों जगह-जगह पर लगे पुस्तक मेलों ने इस धारणा को मिथ्या सिद्ध कर दिया है कि पाठक घट रहे हैं। अच्छी पुस्तकों की बंपर बिक्री से मेरी बात सिद्ध हो जाती है।
प्रश्न - वर्तमान की बदलती लेखकीय चुनौतियाँं किस-किस ओर संकेत कर रही हैं? क्या माना जाय कि आज अभिव्यक्ति अधिक खतरे में हैं?
उत्तर - आज लिखा बहुत जा रहा है। लेखकों की भीड़ सी दिखाई देती है। सार्थक और श्रेष्ठ लिखने वाले कम हैं। उनके लेखन का ही महत्त्व है। शेष के लिए इतिहास का कूड़ादान है। अभिव्यक्ति के सामने कोई खतरा नहीं हैं। सच्चे लेखक सदा खतरों से खेलकर लिखते रहे हैं।
प्रश्न - सर, आज का लेखक जैसा लिखता है, उसके जीवन में वैसी बातें नजर क्यों नहीं आतीं? लेखन और जीवन में दोहरा मानदण्ड क्यों? 
उत्तर - यह समस्या सदा से है। ‘निराला’ और ‘मुक्तिबोध’ जैसों का उदाहरण हमारे सामने हैं। उनके जीवन और सृजन में तादात्म्य था। आज भी थोड़े से रचनाकार हैं जिनकी कथनी-करनी में अन्तर नहीं है, और अगर है भी तो हुत कम है। शेष की बात कहने लायक नहीं है।
प्रश्न - आज का साहित्य समाज के दर्पण के रूप में कहाँ स्थित है? आपके विचार से इसके कारण क्या है?
उत्तर - साहित्य हर काल में समाज का दर्पण होता है। आज भी जिसका सरोकार सामाजिक है वे जीवन यथार्थ का चित्रण कर रहे हैं। आज लफ्फाजी भी बहुत हो रही है।
प्रश्न - तमाम ऐसे लेखक हैं जो काॅरपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों या सरकार की चाकरी कर रहे हैं। उनकी लेखनी में व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह खूब नजर आता है। इस दोहरे व्यक्तित्वों पर आपका क्या विचार है?
उत्तर - इस पर मैं क्या कर सकता हूँ। रावण को भी सीता-हरण के लिए साधु वेश धारण करना पड़ता है। बस, लोग हैं, दुनिया है, दुनियादारी है।
प्रश्न - आज असंख्य साहित्यकारों में मुखौटों वाला व्यक्तित्व पाया जाता है। इससे पाठक के समक्ष बड़ा भ्रम पैदा हो जाता है? एक पाठक के रूप में किस साहित्य को श्रेष्ठ मानना चाहिए?
उत्तर - केशव जी, सुबुद्ध पाठक के सामने कोई भ्रम नहीं है। अधकचरे, अबुद्ध लोग भ्रमित होते हैं। वे तो रहेंगे ही। अब मैं बातचीत के क्रम में आपको श्रेष्ठ साहित्य के किन मानदंडों की चर्चा करूँ। श्रेष्ठ साहित्य को बस ऐसे समझें कि जो मन को कहीं गहरे-बहुत गहरे में स्पर्श करे। जीवन दे, प्रकाश दे, गति दे, चेतना के आयाम को विस्तार दे।
प्रश्न - आपके दिल के सबसे करीब कौन-सी विधा है? उसका कारण क्या है?
उत्तर - मुझे कविताएँ पसंद हैं और गद्य में आत्मकथा। दोनों में रचनाकार का आत्मसंघर्ष उजागर होता है। मुझे आत्मसंघर्ष की चिनगारी से शक्ति मिलती है। शायद इसीलिए ये दो विधाएँ अपेक्षाकृत अधिक पसंद आती हैं मुझे।
प्रश्न - सर, लेखन कर्म में भी आपने किसी प्रकार की बाधाओं को अनुभव किया है? कैसी बाधाएँ? 
उत्तर  - नहीं, लेखन में मुझे कोई खास बाधा अनुभव नहीं हुई। हाँ, कभी-कभी ऐसा जरूर हुआ है कि लिखने का मन बना है अैर कोई जरूरी सांसारिक कार्य सहसा उपस्थित हो गया है तो जैसी मानसिक स्थिति होती है, उसका अनुमान आप भी कर सकते हैं।
प्रश्न - सर, आप गद्य-पद्य दोनों विधाओं में सिद्धहस्त हैं। लेखन के समय आप कोई खास वातावरण पसंद करते हैं?
उत्तर  - नहीं केशव जी, लेखन के लिए कोई खास वातावरण पसंद नहीं है और न ही उसकी कोई दरकार होती है। मेरे लिए जरूरी है मन की एकाग्रता, एकांत और सृजनात्मक दबाव।
प्रश्न - आपकी अपनी पसंदीदा रचनाएँ कौन-कौन सी हैं? अन्य की कौन-कौन सी?
उत्तर - अपना लिखा तो सब पसंद आता है। वैसे मुझे अपने दोहे ज्यादा पसंद हैं। दूसरों के लिखे में बहुत कुछ है जो मुझे बहुत पसंद है। यहाँ कितने की चर्चा करूँ। 
प्रश्न - हिंदी और वर्तमान हिंदी साहित्य के विषय में आपके विचार?
उत्तर - हिंदी में बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है। हिंदी का साहित्य समृद्ध है। विश्व-पटल पर इसकी प्रतिष्ठा बढ़ रही है। बाजार की दृष्टि से भी यह एक महत्त्वपूर्ण और जरूरी भाषा बनती जा रही है। अमेरिका तक ने भी अभी-अभी अपनी एक बेवसाइट हिंदी में शुरू की है। आई.आई.टी. दिल्ली अपने पाठ्यक्रमों में हिंदी को भी सम्मिलित कर रहा है।
प्रश्न - सर, आज का युवा वर्ग प्रोसेशनलिज़्म के नाम पर बड़े तादात में अंग्रेजी आदि की ओर मुड़ रहा है। अपने भविष्य की चिंता में हिंदी से दूर होता जा रहा है। आपके विचार से हिंदी और हिंदी साहित्य का क्या भविष्य है?
उत्तर - आपका कहना सही है। अंग्रेजी की ओर युवकों का - बच्चों का खिंचाव-झुकाव समय की माँग है। इससे हिंदी भाषा एवं साहित्य के अस्तित्व का कोई खतरा नहीं है।
प्रश्न - आपका कवि व्यक्तित्व एक दोहाकार के रूप में अधिक उज्ज्वल है, जबकि दोहा विधा को रीतिकालीन जामा पहनाया जाता है। आप इसे कैसे देखते हैं? 
उत्तर - केशव जी, आज का दोहा वहाँ नहीं है जहाँ आप उसु देख या समझ रहे हैं। रीतिकाल और भक्तिकाल के दोहों की तुलना में आज का दोहा-साहित्य समकालीन जीवन स्थितियों से रूबरु है। काव्य की अन्य विधाओं की भाँति दोहों की दुनिया में भी आपको आज के टटके जीवन-संदर्भ, सच्चाई, संघर्ष और जटिलता के दर्शन होंगे। दो-चार अच्छे संग्रह पढ़कर तो देखिए।
प्रश्न - कहा जाता है कि साहित्य-लेखन एक जन्मजात प्रतिभा है, परन्तु बहुत से लोग कहते नहीं थकते कि मैं अब ग़ज़लगोई सीख रहा हूँ आदि। ऐसे विचारों के लिए आप क्या कहेंगे?
उत्तर - सच है। है तो यह कुदरत की नायाब देन ही। कहा भी गया है -
‘‘हर सज से होती नहीं ये धुन पैदा
बड़ी मुश्किल से होता है ये गुन पैदा।’’
हाँ, अभ्यास से भी कुछ लोग अच्छा लिख लेते हैं। सृजन के क्षेत्र में दोनों की जरूरत है। प्रतिभा और अभ्यास दोनों के योग से उत्तम रचनाएँ लिखी गई हैं। हाँ, नैसर्गिक प्रतिभा की बात ही कुछ अलग है।
प्रश्न - थोड़ा पीछे दृष्टि डालकर बताएँ कि वर्तमान हिंदी साहित्य पर किन विचारों का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है? 
उत्तर - हिंदी साहित्य पर सबसे ज्यादा प्रभाव मार्क्सवाद का पड़ा है। बावजूद इसके बहुत कुछ श्रेष्ठ ऐसा भी लिखा गया है जो मार्क्सवादी प्रभाव से मुक्त है।
घंटों चले इस मुलाकात के दौरान मन में कई समृतियाँ बनीं, कई पल याद आए। मैं उनकी कृपा से आह्लादित था। काफी समय हो गया था। उनका आशीर्वाद  लिया और अपने नीड़ की ओर चल पड़ा।
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                                                                                         - केशव मोहन पाण्डेय 

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