Sep 28, 2014

असीम शुभकामना


    सन 2005 तक मैं अध्यापन के साथ ही अपने लिए एक नए कार्यक्षेत्र का चुनाव कर चुका था। मैंने हिंदी टेली फिल्म ‘औलाद’, भोजपुरी अलबम ‘तोहसे जुड़ल पिरितिया के डोर’ आदि का लेखन-निर्देशन करने के बाद 2007 में एक विडियो फिल्म ‘कब आई डोलिया कहार’ का भी लेखन-निर्देशन किया। मैं आर्थिक रूप से ज़ीरो होने के क्रम में पूर्णतः हो गया। खैर, असफलता के कारण उन दिनों को मैं कभी भी प्रसन्नता के साथ याद नहीं करता। उनकी काली छाया आज भी मेरे जीवन पर विद्यमान है। गाहे-बेगाहे मुझे कष्ट देती रहती है। मेरे अंतर को आहत करती रहती है। 

    मुझे अपने उन कुकृत्यों के किसी बात पर अगर कभी गर्व होता है तो सिर्फ इस बात का कि मैंने अपने क्षेत्र में ही, अपने क्षेत्र के छोटे-बड़े संभावित कलाकारों के साथ ही काम किया। उस समय मेरे पास कोई भी फिल्म इंडस्ट्री का चर्चित चेहरा नहीं था। असफलता के कारणों में एक ह भी है। जो थे, मेरे अपने थे। अपने सखा-संबंधी, अपने परिचित-परिवार। मज़ा आता था। मज़ा इसलिए कि सब मिलकर काम करते थे। आदर-सम्मान ही पारिश्रमिक होता था। समय की सारंगी ऐसी बजी कि कई के मन में सोया कलाकार जाग गया। अब तो मेरे गृह-नगर में भी फिल्मांकन होने लगा। अभिनेता बन गए। 
    आज फेसबुक पर एक पोस्ट देखा। देखा तो इस संयोग पर गर्व भी हुआ और अपने उस पहले किए गए कृत्य पर पहली बार प्रसन्नता हुई। बात यह कि मनोज द्विवेदी एक अनुभवी कलाकार हैं। वे मेरे गृह-जनपद के होने के साथ ही मेरे अच्छे मित्र हैं। ‘कब आई डोलिया कहार’ के समय तक उनकी कई फिल्मों ने भरपूर लोकप्रियता प्राप्त कर लिया था। ‘कब आई डोलिया कहार’ में वे पहली बाद मुख्य भूमिका निभा रहे थे। उस फिल्म में मेरे एक दूसरे मित्र अमित शर्मा ने द्वितीय अभिनेता की भूमिका का निर्वहन किा था। अमित आज भी हमेशा प्रयत्न कर रहे हैं और वे भी कई फिल्मों में आ चुके हैं। 
    मेरे दोनों अभिनेता मित्र ‘मनोज द्विवेदी’ और ‘अमित शर्मा’ ने अपने परिश्रम के हर एक पहलू से समय-समय पर मुझे अवगत कराया है। ये सफल होने के बाद भी अपना पैर ज़मीन पर ही रखते हैं। मुझे भी मान देते रहते हैं। फिल्मांकन के बाद अमित दिल्ली आए तो दिनेश लाल यादव और खेसारी लाल यादव के साथ अभिनय करने के अपने अनुभव को बड़ी ही प्रसन्नता से तो बताते ही रहे, उन्होने अपनी आने वाली फिल्म ‘हथकड़ी’ के कई फोटो भी मुझे दिखाए और पोस्टर आने पर प्रेषित भी किए। यही हाल मेरे मित्र मनोज द्विवेदी की भी रही। ह्वाट्स एप्प पर उनकी फिल्मों के फिल्मांकन का चित्र हमेशा आता रहता है। उन्होंने अपनी आने वाली फिल्म ‘लहू पुकारेला’ का समय-समय पर मुझसे खूब जिक्र किया है।
 

    आज फेसबुक का पोस्ट यह था कि ‘लहू पुकारेला आौर ‘हथकड़ी’ दुर्गा पूजा के शुभ अवसर पर एक ही दिन, एक ही साथ रिलीज होने जा रही हैं। दोनों का पोस्टर दिया हुआ था। मुझे अपने टीम की फिर याद आ गई। याद आई तो यादों के उन झरोखों को स्वच्छ करते हुए अपने फिल्म का पोस्टर तो निकाला ही। आज फिल्म इंडस्ट्री से मेरा नाता नहीं हैं। हाँ, कभी-कभी गीत, संवाद या कथा लेखन में लग जाता हूँ, मगर पहली बार ऐसा लगा कि मैं सफल हो गया। दोनों को बधाई दिया और लेखनी को रोक नहीं पाया। दोनों फिल्मों को अपार सफलता मिले। 

Sep 24, 2014

बड़ा उपहार

 
    बात सोमवार की है। विद्यालय में प्रथम सत्रीय परीक्षा का अंतिम चरण चल रहा है। मैं सुबह-सुबह आठ बजे ही रिलीवर की ड्यूटी में एक कमरे में बैठा था। कुछ देर बाद शायद कक्षा पाँच की एक नन्हीं, दुबली सी छात्र गुलाबी नए फ्रॉक में अपनी एक सह-पाठिनी के साथ हाथ में एक टॉफी का ट्रे लिए आई। 'टुडे माय बर्थडे सर।'
    विद्यालय में बर्थडे बेबीज़ अपने अध्यापक/अध्यापिकाओं को टॉफी देते हैं और उनका आशीर्वाद लेते है। मैं आठवीं, नौवीं और दसवीं की कक्षाओं में ही पढ़ता हूँ। सो उन कक्षाओं में कभी जाना नहीं होता। 
    मैंने उस नन्हीं बेटी को शुभकामना और आशीर्वाद दिया। चली गई। मैं अपने काम में व्यस्त हो गया। सुबह में रिलीवर की ड्यूटी करीब डेढ़ घंटे की होती है। वैसे तब मैं कक्षा आठवीं का पेपर चेक कर रहा था। करीब आधे घंटे बाद फिर से वह लड़की अपनी किसी अन्य सहेली के साथ आई और अपने उन्हीं शब्दों को दुहराई - 'टुडे माय बर्थडे सर।'
'मैं बोला यस, आई नो।' 
'सर, टॉफ़ी ले लीजिये।' 
मैंने बोला, - 'अभी तो आई थी। मैं ले चूका हूँ।' 
तपाक से हँसी और बोली, - 'सर, ओ मैं नहीं थी, मेरी ट्विन्स सिस्टर थी।'
     मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। वह भी अपनी जुड़वा बहन की तरह नन्हीं, दुबली सी छात्र गुलाबी नए फ्रॉक में अपनी एक सह-पाठिनी के साथ हाथ में एक टॉफी का ट्रे लिए आई थी। मुझे कुदरत की करिश्मों के साथ ही एक सुखद अनुभूति हुई। लगा कि काश ये दोनों मेरी बेटियाँ होतीं। मुझे हमेशा ही आत्मिक प्रसन्नता मिलती। ऐसा लगा कि आज मुझे किसी अच्छे कर्म का सुफल मिला है। ऊपर वाले ने मेरे किसी छोटे कर्म का बड़ा उपहार दिया है।  
      -------------- क्या सच में वही प्रसन्नता मिलती? तो लोग ऐसी ख़ुशी देने वाली बेटियों को बोझ क्यों समझते है?------ जो भी हो, अब जब भी वह वाक़या याद आता है, दिल से उन दोनों परियों को आशीर्वाद देता हूँ। तब मन में अनचाहे भी एक ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। 
                                                                 ----------------------

Sep 22, 2014

अवतारी कृष्ण का संघर्षमय जीवन

    जब धार्मिक नायकों की बात आती है, तब मेरे मस्तिष्क में एक साथ कई रेखाएँ खींच जाती हैं। आड़ी-तिरछी, उल्टी-सीधी। उन रेखाओं से कई आकृतियाँ जन्म लेती हैं। कहीं सुन्दर बड़ी-बड़ी आँखें, कहीं साँवला-सलोना मुख। अधर पर अक्षय मुस्कुराहट। कानों में कभी कुवलय-पुष्प तो कभी स्वर्ण-कुण्डल। श्याम-वर्ण शरीर। उस पर लौकिक पीतांबर। वन-मालाओं से सुशोभित कंठ। गुँजाओं से अंग-प्रत्यंग आभूषित। मोर पंख का मुकुट। ललाट पर घुँघराली अलकें। अधर पर चारु वेणु। यह रूप आयास ही नहीं उभरता। एक पूरा चित्र बनता है। बृज-बिहारी का चित्र। गोपाल-गिरिधारी का चित्र। मोहन-मुरारी का चित्र। कृष्ण का चित्र। 
     तब मेरे समझ में आता है कि इतिहास और पौराणिक कथाओं को किताबों के चंद तहरीरों में बंद करके साक्ष्य बनाया जा सकता हैं, या मिटाया जा सकता हैं। लेकिन उन आस्थाओं का क्या प्रमाण हो सकता है, जो लोगों के रगों में लहू की तरह प्रवाहित होती हैं? आँखों में बिजली की तरह चमकती हैं। कृष्ण भी तो एक आस्था का ही नाम है। एक विश्वास का ही नाम है। 
     भगवान श्रीकृष्ण का लीलामय जीवन अनके प्रेरणाओं व मार्गदर्शन से भरा हुआ है। उन्हें पूर्ण पुरुष लीला अवतार कहा गया है। उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में विस्तार से किया गया है। उनका चरित्र मानव को धर्म, प्रेम, करुणा, ज्ञान, त्याग, साहस व कर्तव्य के प्रति प्रेरित करता है। उनकी भक्ति मानव को जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। भाद्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को चारों ओर कृष्ण जन्म को उत्सव के रूप में मनाया जाता है। कृष्ण भारतीय जीवन का आदर्श हैं। उनकी भक्ति मानव को उसके जीवन की पूर्णता की ओर ले जाती है। धरती पर धर्म की स्थापना के लिए ही द्वापर में भगवान विष्णु कृष्ण के रूप में मथुरा के राजा कंस के कारागार में माता देवकी के गर्भ से अवतरित हुए। उनका बाल्य जीवन गोकुल व वृंदावन में बीता। गोकुल की गलियों तथा यशोदा मैया की गोद में पले-बढ़ेे। कृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में ही अपने परम ब्रह्म होने की अनुभूति से यशोदा व बृजवासियों को परिचित करा दिया था। उन्होंने ऐसा जानबुझ कर नहीं किया था। वे तो परिस्थितियों की दासता के कारण चुनौतियों का सामना किए। उन्होंने पूतना, बकासुर, अघासुर, धेनुक और मयपुत्र व्योमासुर का वध कर बृज को भय मुक्त किया। इंद्र के अभिमान को दबाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा को स्थापित किया।
     कृष्ण साक्षात करुणा हैं। दया हैं। क्षमता हैं। मर्यादा है। सेवा-भाव हैं। संबंधों के पर्याय हैं। जीवंत विग्रह हैं। कृष्ण मर्यादा से मुक्त रहकर भी बंधनयुक्त हैं। अपने चरित्र के आकाश में कैद कृष्ण को कोई भी जीव भूल नहीं सकता। उन्हें याद करने के लिए इतिहास के पुस्तकों की आवश्यकता नहीं, पौराणिक ग्रंथों के परायण की आवश्यकता नहीं, विश्वास और आस्था की आवश्यकता पड़ती है। वे लोक रंजक हैं। लोक विचारों में जीवित रहते हैं। वे अहेरी भी हैं। आखेट करते हैं। वे बादल भी हैं। बरसते भी हैं। उनके बरसने में सृजन की शक्ति है। ऊर्वरा की शक्ति है। बंध्या धरती भी तृप्त हो जाती है। अंकुरण फूट पड़ता है। जीवन होता है। राधा उस बादल का जल हैं। कृष्ण जीवन की सत्यता को समझते हैं। समझते हैं तभी तो युद्धक्षेत्र में गीता द्वारा युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। अपने वंशजों के विनाश पर भी दुखी नहीं होते। कृष्ण तोड़कर मुक्त होते हैं।
   कृष्ण का जन्म आधी रात को होता है। अमावस्या की काली रात में। मेघों से आच्छादित काली रात में। भार्द्रपद की काली रात में। बरसात भरी काली रात में। कृष्ण का जन्म कारागार में होता है। अपने मातुल के कैद में। जहाँ माँ-बाप को बेड़ी लगी है। कृष्ण ऐसे समय में आते हैं। भय और अत्याचार के समय में। दुख से आक्रांत समय में। अज्ञान से उद्वेलित समय में। ज्ञान का दीप बनकर। हर्ष की मरीचि बन कर। निर्भयता को चुनौती देकर। कृष्ण अपने नवजात रूप में ही यमुना को अपना स्पर्श कराते हैं। यशोदा मैया और नंद बाबा के यहाँ रहते हैं। एक राजकुमार का जीवन नहीं, सामान्य जीवन। खेल-खेल में काली नाग के दमन का जीवन। दही और माखन चुराने का जीवन। बंसी के मधुर तान से सबको मुग्ध कर देने वाला जीवन। अनेक असुरों का दमन करने वाला जीवन। गोपियों संग प्रेम क्रीड़ा करने वाला जीवन। रास रचाने वाला जीवन। और सबके बाद कर्म योग का जीवन। 
   बाल्य अवस्था में कृष्ण ने न केवल दैत्यों का संहार किया बल्कि गौ-पालन की। उनकी रक्षा व उनके संवर्धन के लिए समाज को प्रेरित भी किया। उनके जीवन का उत्तरार्ध महाभारत के युद्ध व गीता के अमृत संदेश से भरा रहा। धर्म, सत्य व न्याय के पक्ष को स्थापित करने के लिए ही कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में पांडवों का साथ दिया। महाभारत के युद्ध में विचलित अपने सखा अर्जुन को श्रीकृष्ण ने वैराग्य से विरक्ति दिलाने के लिए ही गीता का संदेश दिया। उन्होंने अभिमानियों के घमंड को तोड़ा। अपने प्रति स्नेह व भक्ति करने वालों को सहारा भी दिया। वे राज्य शक्ति के मद में चूर कौरवों के स्वादिष्ट भोग का त्याग कर विदुर की पत्नी के हाथ से साग ग्रहण किए। द्वारका का राजा होने के बाद भी उन्होंने अपने बाल सखा दीन-हीन ब्राह्मण सुदामा के तीन मुट्ठी चावल को प्रेम से ग्रहण कर उनकी दरिद्रता दूर कर मित्र धर्म का पालन किया।
    कृष्ण संस्कार हैं। वे आत्मीय लगते हैं। कृष्ण चिरकालीक सत्य है। सोलह कला लिए पूर्ण पुरुष हैं कृष्ण। वे परंपराओं को चुनौती देते हैं। एक राजवंश की परंपरा को। सामंती परंपरा को। वैभवशाली परंपरा को। कृष्ण अवतार हैं। उन्हें पूर्ण प्रकाश में आना चाहिए। दिन में आना चाहिए। उन्हें क्यों डरना? पर वे काली आधी रात को कारागार में आते हैं। संतानोत्पति पर माताएँ संतान की देख भाल करती हैं। कृष्ण के पिता वसुदेव उनकी देखभाल करते हैं। आगे एक राजकुमार अपनी पौरी से दूर समुचे गाँव में खेलने जाता है। एक अवतरित आत्मा मिट्टी खाता है। घर-घर में तनक दही के काज चोरी करता है। फटकार सुनता है। माँ यशोदा द्वारा ओखल में बाँधा जाता है। कृष्ण अवतार लेते हैं लीला के लिए। उनकी लीला रूढि़यों को तोड़ने की लीला है। वे सामान्य ग्वाल-बालों के साथ वन-वन भटकते गाय चराते हैं। करील-कूँजों में खेलते हैं। गेंद यमुना में चले जाने पर अपने ईश्वरीय या सामंत होने का धौंस या शक्ति नहीं दिखाते। भले वह घटना लीला ही सही, वे स्वयं गेंद निकालने यमुना में जाते हैं। 
     अवतारी कृष्ण का पूरा जीवन ही संघर्षमय रहा है। वे अपने जीवन से लोगों को संघर्ष की ही शक्ति देते हैं। अपने कर्म-धर्म से उन्होंने सब लोगों का विश्वास जीत लिया कि आज के समय में भी लोग उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के रूप में मानते और पूजते हैं। श्रीकृष्ण पूर्णतया निर्विकारी है। उनका स्वरूप चैतन्य है। श्रीकृष्ण ने तो द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसे अपमानित होने से बचाया था। गीता के माध्यम से अर्जुन को अनासक्त कर्म की प्रेरणा दी। इसका परिणाम उन्होंने अपने निजी जीवन में भी प्रस्तुत किया। मथुरा विजय के बाद में उन्होंने वहाँ राज्य नहीं किया। 
     स्वयं एक अवतारी होने के बावजूद भी कृष्ण एक देवता के मान-मर्दन के लिए उन्हें चुनौती दे देते हैं। गोकुलवासियों को बचाने के लिए अपनी दैवीय शक्ति से गोवर्धन को छत्र रूप में कनिष्ठिका पर उठा लेते हैं। कुल की इच्छा के विरूद्ध स्वयं सत्यभामा एवं रूक्मिणी के भगाने का काम करते हैं। प्रेम की पराकाष्ठा दिखाने के लिए राधा सहित अन्य गोपियों के साथ रास रचाते हैं। राधा अमर हो जाती हैं। राधा के प्रेम से वे स्वयं अमर हो जाते हैं। वे सामान्य जन की भाँति वेणु बजाते हैं। गोपिकाओं का वस्त्र हरण करते हैं। महाभारत जैसे युद्ध का उद्घोष कर महाविनाश के लिए अर्जुन को उत्साहित करते हैं। मोह पाश से मुक्त कराने के लिए पावन गीता का अमृत उपदेश देते हैं।
    सच ही, जीवन पर कृष्ण ने अपने अच्छे-अच्छे कर्मों से परंपराओं को चुनौती दिया है। नवीन आदर्श प्रस्तुत किया है। वे लोक सŸाा के नायक के रूप में भी हैं। प्रेम-पुजारी के रूप में भी हैं। तभी तो वे प्रखर शासक हैं। तभी तो वे रसिक-शिरोमणि हैं। कर्मण्यवाधिकारस्ते कहने वाले वे महान कर्मयोगी हैं। वे मन के लिए अभिराम हैं। नेत्र के लिए रमणीय हैं। वाणी के लिए मिष्ठान हैं। हृदय के लिए रंजक हैं। श्रवण के लिए संगीत हैं। कृष्ण कृपालु हैं। उनकी कृपा से मुनिगण देवत्व को प्राप्त होते हैं। परम पद प्राप्त करते हैं। कृष्ण रूप में, कृष्ण शब्द में, कृष्ण आस्था में, न जाने कौन-सी शक्ति है कि युगों-युगों से इतने प्रबल और प्रभावशील रूप से नास्तिकता की आँधियाँ चली। अधर्म का अंधकार छाया। परन्तु भारतीय संस्कृति को कोई भी हिला नहीं पाया। आज भी अधर्म करने वालों को सोचना चाहिए कि भारतीय आस्था अडिग है। अगर अधर्म ऐसे बढ़ता रहा तो पुनः कहीं से घ्वनि की टंकार सुनाई देगी। संभवामि युगे-युगे का घोष सुनाई देगा। पुनः प्रेम की वर्षा होगी। करूणा का कालीन बिछेगा। दया का दान किया जाएगा। और तब पुनः भारत की विराटता का शंखनाद होगा।

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वर्तमान समय में राम की प्रासंगिकता

     महर्षि वाल्मीकि के संस्कृत साहित्य से लेकर नरेश मेहता के ‘संशय की एक रात’ तक और वर्तमान के अन्य साहित्यकारों ने भिन्न-भिन्न उपमाओं, अलंकारों, उद्भावनाओं, कथोपकथनों, कथा-प्रसंगों आदि से राम के चरित्र को वर्णित किया है। राम कथा को लोक मानस तक संप्रेषित करने का प्रयास किया है। हरिवंश पुराण, स्कंद पुराण, पद्म पुराण, भागवत पुराण, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण, भृशुंडी रामायण, कंब रामायण आदि ग्रंथों द्वारा भी राम कथा का व्यापक प्रचार हुआ है। प्रतिमा नाटक, महावीर चरित, उदात्त राघव, कुन्दमाला, अनर्घराघव आदि नाटकों द्वारा भी राम कथा को लोकप्रिय बनाया गया है, परन्तु राम कथा को जो प्रसिद्धी गोस्वामी तुलसीदास द्वारा मिली, वह किसी अन्य ने नहीं दिया। 
     तुलसीदास ने रामचरितमानस, कवितावली, विनय पत्रिका, दोहावली, उत्तर रामचरित आदि ग्रंथों के माध्यम से, अपनी रससिक्त लेखनी से, सरल शब्द-सर्जना से राम के चरित्र को जैसा प्रस्तुत किया, वैसा कोई अन्य नहीं कर सका। तुलसीदास जब राम को राजा बना देते हैं तब ऐसा लगता है कि राजा शब्द केवल राम के लिए ही बना है। गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाजवाद की सथापना करना चाहा है। सत्य भी तो है कि सामाजिक मूल्य व्यक्ति के हित और स्वार्थ से ऊपर होते हैं । राम ने भी समाजवाद के इस अर्थ को अपने जीवन में उतारा और अपने आचरणों से लोगों को समझाया भी। वैसे तो संपूर्ण रामचरित मानस यहीं सीख देता है। वास्तव में समाजवाद राम के चरित्र में विशेष महत्त्व रखता है। सत्ता-सुख को त्यागकर, समाजवाद को ढोकर राम ने अपने साहस का परिचय दिया है। त्याग की भावना साहसिक कृत्य का सर्वोच्च उदाहरण है। अगर व्यक्ति में साहस नहीं है, तो जीवन नहीं है। साहस, सत्-जीवन का आधार है।
     राम का चरित्र लोक मानस का आदर्श चरित्र है। वे हमारे दैनिक जीवन के प्रेरणा-स्रोत हैं। वे आदर्श व्यक्ति हैं। महानायक हैं। वे ईश्वर के अवतार हैं। दीनानाथ हैं। वे सबके हैं। सभी उनके हैं। ऐसा उदाहरण अन्य कहीं शायद ही प्राप्त हो कि हम जिस सामाजिक ढाँचों पर इतना जोर-जोर से सोचते हैं, उसके विषय में बिना कुछ कहें ही राम ने सब कुछ कह दिया। राम ने अपने समय के अनेक विरोधी संस्कृतियों, साधनाओं, जातियों, आचार-निष्ठाओं और विचार-पद्धतियों को आत्मसात् करते हुए उनका समन्वय करने का साहस किया। साहस के लिए शारीरिक और भौतिक बलिष्ठता की आवश्यकता नहीं पड़ती, हृदय में पवित्रता और चरित्र में दृढ़ता की आवश्यकता पड़ती है। साहस का यह गुण राम में पूर्ण रूप से था। तभी तो उन्होंने कदम-कदम पर साहसिक कार्यों का उदाहरण प्रस्तुत किया है।
    राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी और पिता की आज्ञा पाकर सपत्नी वन जाने को तैयार हो जाना, साहस का ही तो परिणाम है। वे चाहते तो विद्रोह कर बैठते। संभव था कि कारागार में डाल दिए जाते। दर-दर तो नहीं भटकना पड़ता। वैसे तो वे थे सर्व-शक्तिमान! उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं था, परन्तु पितृ-आज्ञा को स्वीकार कर उन्होंने एक आदर्श प्रस्तुत किया। राम अयोध्या जैसे देश के युवराज थे। अपनी सारी विलासिता त्यागकर, गंगा तट से रथ भी वापस भेजकर, नंगे पाँव, वल्कल वस्त्र धारण करके वन-पथ पर चल पड़े। राम ने अपने साहस के बूते पर सामान्य जनों के कष्टों की अनुभूति करने के साथ ही आदर्श की भी स्थापना की। चित्रकूट में वास करते समय भेद रहित होकर कोल-भीलों का साहचर्य लिया, -
‘कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।।
बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला।।’
    वन में ऋषि-मुनियों के अस्थियों को देखकर, दूसरे के दुख से दुखी होकर निसिचर हीन करने का प्रण करना भी कम बड़ा साहसिक कार्य नहीं है! -
‘निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह।।

     साहसी व्यक्ति में एक गुप्त शक्ति रहती है, जिसके बल पर वह दूसरे की रक्षा में अपना प्राण तक उत्सर्ग करने को तत्पर हो जाता है। देश, धर्म, जाति या परिवार वाले के लिए ही नहीं, संकट में पड़े अपरिचित व्यक्ति की सहायता के लिए भी तत्परता बनी रहती है। साहसी व्यक्ति दूसरे के लिए भी हर प्रकार के क्लेशों को हर्षित होकर सहन कर लेता है। राम ने अदम्य साहस का दृष्टांत उस समय भी प्रस्तुत किया, जब प्रवाहमय जलधि की जलधारा को स्थिर करने का निश्चय किया। सच ही, यह राम का साहस ही था कि समुद्र को मानव रूप धारण कर उनकी शरण में आना पड़ा। राम जैसा व्यक्ति ही संपूर्ण साहस से यह कह सकता है कि प्रजा की खुशी के लिए अर्धांगिनी सीता का परित्याग करने में रंच मात्र भी क्लेश नहीं होगा।
    साहसी व्यक्ति कर्तव्यपरायण होता है। उसे अपने कर्मों पर अटूट विश्वास होता है। राम ने भी यहीं किया। वे अच्छी तरह से जानते थे कि रावण महाबलशाली है। उसमें अकूत शक्ति है। उसका बेटा इन्द्र को जीत चुका है। परन्तु सीता की रक्षा के लिए रावण जैसे महापराक्रमी से युद्ध कर के विजयश्री प्राप्त किया।
    अपने पूरे वनवास काल में राम ने अत्याचारी व्यक्तियों और अनीतिपूर्ण राज्यों का अंत करके जहाँ राजनैतिक स्थिति को दृढ़ किया, वहीं दंडक वन में खर, दूषण और तृशिरा बंधुओं का संहार भी किया। बालि का वध करके उसके छोटे भाई सुग्रीव को तथा रावण का वध करके उसके छोटे भाई विभीषण को राज्य देकर वसुधा को आसुरी प्रवृत्तियों से मुक्त किया। निषादराज गुह, पंपापुर के राजा सुग्रीव, विभीषण के अतिरिक्त अन्य वानर-भालुओं, कोल-किरातों के साथ मैत्री स्थापित किया। वन की वृद्धा भिलनी शबरी का जूठन खाया। राम के इस संपूर्ण व्यक्तित्व से उनकी साहसिक प्रवृत्ति ही प्रतिबिंबित होती है। उन्होंने अपने कर्मों से सामाजिक, धार्मिक, बौद्धिक, सभी क्षेत्रों में साहस का परिचय दिया है। निश्चय ही राम अपने इन्हीं गुणों के कारण आज भी मंदिरों के चहारदीवारों के कैद से मुक्त होकर समस्त जन-मन के हृदय पर राज करते हैं। वे सबके प्रेरक हैं। सबके लिए एक्स्ट्रा एनर्जी हैं। राम को निम्नलिखित रूपों में सामाजिक अत्याचार दिखाई देता है, जिसे आज संस्कृति कहा जा रहा है। -
‘बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। ते लंपट परधन परदारा।।
मनहिं मातु पिता नहीं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।

    अपने श्रेष्ठ आचरण तथा अद्भुत साहस के साथ राम ने जिस जीवन को भोगा, उसमें अनेक व्यक्तियों का सानिध्य रहा। उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों में सरल एवं कूटिल-मना, सभी थे। ऐसा देखा जा सकता है कि उनके संपर्क में आने वाला प्रत्येक व्यक्ति साहसी हो गया तथा अपने जीवन को धन्य कर लिया। राम भरत के भाई थे। राम के वन गमन के उपरांत भरत को ही सŸाारूढ़ होना था, लेकिन वे ननिहाल से आकर गद्दी पर नहीं बैठे। तपस्वी का जीवन व्यतित करते हुए प्रजा के सामने त्याग और कर्Ÿाव्यपरायणता का आदर्श रखा तथा राम की ओर से चैदह वर्ष तक राज्य का प्रबंध किया। भरत पर राम को दृढ़ विश्वास भी तो था। -
‘भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरिहर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ।।’

    लक्ष्मण भी राम के अनुज थे। उन्होंने भी राज-सुख त्यागकर चैदह वर्ष तक क्षुब्धा और निद्रा को त्यागकर प्रतिबिम्ब की भाँति राम की सेवा किया और आर्दश स्थापना किया। वन जाते समय राम को पार उतारने के लिए केवट ने उनका पाँव धोने के हठ का साहस किया। उनके चरणामृत को लेकर परमगति को प्राप्त हुआ।
    राम के चरित्र के साथ मारीच का बहुत निकट का संबंध है। मारीच राम के पौरुष से परिचित था। मोक्ष-प्राप्ति की लालसा में वह स्वर्ण-हिरण बन बैठा। राम के संपर्क में आने पर समुद्र भी अपनी जलधाराओं को स्थिर करने का साहस कर लेता है। गिद्ध जटायु भी रावण जैसे पराक्रमी योद्धा से दो-दो हाथ करने का साहस कर लेता है। राम के संपर्क में आने पर हनुमान समुद्र को लांघकर लंका को जलाने का भी साहस कर लेते हैं। एक राजा के दरबार में जाकर, उसके सामने पाँव जमाने वाले अंगद का साहस भी राम से ही प्रेरित है। राम का साहस हमारी वृत्तियों को उर्ध्वगामी बनाने की प्रेरणा देता है।
    राम विष्णु के अवतार और परब्रह्म स्वरूप हैं। राम में शक्ति, सौन्दर्य तथा साहस का समन्वय है।  उनका लोकरक्षक रूप प्रधान है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम और आदर्श के प्रतिष्ठापक हैं। उन्होंने जीवन की अनेक उच्च भूमियाँ प्रस्तुत की हैं। राम ने गृहस्त जीवन की उपेक्षा नहीं की, अपितु लोक सेवा और आदर्श गृहस्त का उदाहरण उपस्थित करके सामान्य जन के जीवन स्तर को भी ऊँचा उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया। राम इतिहास ही नहीं, वर्तमान और भविष्य भी हैं। राम सृष्टि के कण-कण में विद्यमान हैं। वे अन्न और जल के समान सुलभ हैं। वर्तमान राजनैतिक आपाधापी, सामाजिक अस्थिरता और भौतिक आकर्षण के समय में राम के साहस और आदर्श का स्मरण होते ही एक आदर्श समाज की संरचना हृदय-पटल पर चित्रित हो जाती है। ऐसा समाज, जिसमें सभी व्यक्ति अपने धर्म (कर्त्तव्य) का पालन करते हों। अनीति न हो। वैमनस्य न हो। पारस्परिक स्नेह हो। श्रम की महत्ता हो। सभी स्वावलंबी हो। कुंठा का नाम न हो। परोपकार अनिवार्य भाषा हो।
आज हमें भी अपनी आंतरिक शक्यिों को एकत्रित कर सामाजिक बुराइयों के अंत का प्रण करना ही पड़ेगा। राम और उनके साहस को सार्थक करना ही पड़ेगा। तब पुनः विश्व में भारत का जयघोष होगा। समाजवाद का सोच सार्थक होगा। सामाजिक समरसता फैलेगी और सभी प्रकार के सुखों से देश भर जाएगा। तब पुनः लिखा जाएगा, -
‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लछन हीना।।
अल्प मृत्यु नहिं कबनिहु पीरा। सब सुन्दर सब निरुज सरीरा।।

    समाज की वर्तमान स्थिति में राम की प्रासंगिकता पुनः दृष्टिगत हो रही है। आज समाज में सामाजिक चिंतन छोड़कर केवल वाद ही वाद दिखाई दे रहा है। ‘लोकपाल’ की कल्पना करने वाले शरीर को उपेक्षित कर दिया जाता है। राजनैतिक पार्टियाँ जनता की कोमल और निर्मल भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती नजर आ रही हैं। दिल्ली का जंतर-मंतर और रामलीला मैदान अब दूसरी लीलाओं का मंच बन गए हैं। लड़कियाँ, कन्याएँ तथा छात्राएँ डरी-सहमी सी दिखाई देने लगी हैं। अनेक सीताओं का शील हरण किया जा रहा है। आज का रावण दस नहीं, असंख्य चेहरों में जी रहा है। महँगाई डायन सुरसा बनी, जन-सामान्य को निगलने के लिए तत्पर है। हमारे नेता, एक-दूसरे पर बयानबाजियों में ही व्यस्त हैं। भागती जिंदगी अब और क्षणभंगुर हो गई है। सुरक्षा देने वाले बल अब स्वयं ही गोलियों का शिकार हो जाते हैं।
    राम! जनता जागती तो है, मगर उसे आपका साथ नहीं मिल पाता। जंतर-मंतर, इंडिया-गेट हो या देश का अनगिनत गली, गाँव, चैबारा, जनता ने सोलह दिसंबर के बाद सब तो किया, मगर कहाँ कुछ मिला? अब तो सात-आठ साल की नन्हीं चिरैया भी सुरक्षित नहीं। राम! आपको एक बार पुनः ‘निसिचर हीन करहुँ महि’ का प्रण करना ही पड़ेगा। एक बार पुनः समता मूलक समाज की वास्तु तैयार करनी ही पड़ेगी। वैसे तो यहाँ सब हैं, लक्ष्मण भी, शत्रुघ्न भी, भरत भी। सीता, रावण और सुरसा भी। बस आप नहीं हैं तारनहार! देश की जनता एक बार पुनः आपका जन्मोत्सव मनाने को तैयार है और तैयार है स्तुति के लिए। -
‘भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी।’
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Sep 19, 2014

प्रेम (लघुकथा)

    आँख के सामने कुप्प अँधेरे को अनुभव करके संतोष ने कहा, - 'अब होश आया कि मैं अपना चश्मा तो घर ही भूल गया।'
    जीवन-संगिनी सरिता उसके पीछे बैठी स्कूटर का बैक-व्हील कस के पकड़ ली और जोर से चिल्लाई, - 'हाऊ नॉनसेन्स! - - अब तो स्कूटर रोको। मेरी जान लोगे क्या?'
     संतोष ने गाड़ी रोक कर पीछे से आते ऑटो को हाथ दिया और सरिता को उसपर बैठाते हुए खुद स्कूटर से आ जाने की बात कह कर उसे मॉल पहुचने के लिए भेजा। 
    सड़क के सन्नाटे में जैसे वह खो गया। प्रेम का ऐसा रूप उसने सोचा भी न था। 
    'अपने जान की इतनी चिंता ? स्कूटर पर मैं भी तो था?' 
    इसी सोच की सवारी से संतोष घर की ओर मुड़ गया।
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सोच (लघुकथा)

     ऑफिस में सहकर्मी हमेशा चर्चा करते है, अधिकारी उदहारण देते रहते है। कहते हैं कि आँखों में सपने तो सब पालते है। वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए लक्ष्य भी निर्धारित करता है। शिवम इसीलिए सफल है कि वह हर एक घटना के सकारात्मक पहलू को ही देखता है। अलग सोचता है। शिवम के पास काम के सामने समय कहाँ रहता है। लोकल की भीड़ में लंच का पैकेट खोलना मज़बूरी थी। वेज़-रोल का एक ही बाइट लिया था कि 'जोगेश्वरी' स्टेशन पर उतरती भीड़ के धक्के से पैकेट रेल-ट्रैक पर चला गया।
     'थैंक गॉड' कहकर एक लम्बी साँस लिया। यह सोचकर मुस्कुराने लगा कि आज माँ का बनाया हुआ वेज़-रोल यहाँ के चूहों को भी नसीब हो गया। 
     वास्तव में, सफलता की शुरुआत सोच से ही होती है।
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ज़ाहिल (लघुकथा)


     सौंदर्य के साथ आकर्षण तो होता ही है, मौन का भी बराबर ही साहचर्य होता है। मोहित पहली बार नर्मदा के तट पर था। उसकी स्वच्छता, हरित-नीलाभ मिश्रित जल-राशि का सौंदर्य तो था ही, अभी-अभी संपन्न हुए छठ-पूजा के शेष चिन्हों को देखकर वह गर्वित अनुभव कर रहा था। ठेंठ गुजरात में ठेंठ रूप में छठ पूजा। भरुच के नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर का भी सौंदर्य था, लोगों के आने-जाने और विश्राम का भी सौंदर्य था। सौंदर्य की उस शांति में भी मोहित के मन में शोर हो रहा था। वर्तमान परिस्थिति और आकांक्षा के द्वंद्व का शोर। है और होने के बीच का शोर। मोहित और उसके अस्तित्व-बोध के बीच का शोर। 
    तभी मंदिर में एक परिवार आया। एक युवती, एक बच्चा और माता-पिता। स्वभावतः बच्चा इतना खुला स्थान पाकर खिलखिलाता दौड़ा और उस छठ-पूजा के समय चढ़ाई गई सामग्रियों के कारण फिसलता बाउंड्री-वॉल से टकराया। अगर दीवार नहीं होती तो शायद सीधे नर्मदा में ही जाता। 
     पिता ने वहाँ पूजन करने वालों को गाली देते हुए ज़ाहिल करार दिया। तड़पती माँ ने बच्चे को झाड़-पोंछकर गले लगाया। पति के जबान को रोकते हुए बोली, - 'मंदिर में आकर आपका ऐसा बोलना आपके शहरी होने का प्रमाण तो नहीं देता।'
यह सुनकर युवती मोहित को देखने लगी। अब उसके मन का शोर भी मौन हो गया था। 

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जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं?

    इस बार मन में ठान लिया था कि 'भोजपुरी पंचायत' पत्रिका के अगस्त अंक के लिए स्वतंत्रता दिवस से प्रेरित लेख होना चाहिए। एक-दो दिन से संपादक जी के फोन का भी दबाव था। लिखने की बेचैनी तो थी, भावों का संसार भी बस रहा था। कुछ फ्रेम तैयार नहीं हो रहा था कि एकाएक रियलिटी शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के अगले सीजन के प्रोमो पर नज़र ठहर गई। ‘जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं?’  . . . . लगा कि अब कुछ हो जाएगा। उस प्रोमो को देखकर भी कुछ हो जाता है। प्रोमो में बिग बी पूर्वोत्तर की लड़की से प्रश्न पूछते हैं कि ‘कोहिमा किस देश में है?’ चार विकल्प दिए जाते हैं, - भारत, भूटान, नेपाल और चीन। प्रतिभागी लड़की इसके लिए ‘ऑडियंश पोल’ लाइफ लाइन लेती है। सभी ऑडियंश का एक ही जवाब होता है - भारत। अमिताभ बच्चन कहते हैं कि सौ प्रतिशत लोगों ने कहा है - इंडिया। यह बात तो सभी जानते है। इस पर कंटेस्टेंट जवाब देती है, - ‘जानते तो सब हैं, पर मानते कितने हैं?’ कई समीक्षक इस प्रोमो को देश को जोड़ने और दिल को छू लेने वाला बता रहे हैं। कई विरोध भी कर रहे हैं, पर मैंने अपने लाभ की चीज ले ली। 
     मैंने छात्र जीवन से लेकर आज तक पंद्रह अगस्त को हर साल कुछ अलग-अलग ढंग से आते देखा है। बचपन में सफेद कागज़ को गेरू, हरे रंग आदि से रंग कर तिरंगे की शक्ल में स्कूल में ढोया है। आज छुट्टियों का आनन्द लेता हूँ। पंद्रह अगस्त तो हर वर्ष आता है, आगे भी आकर चला जाएगा। स्वतंत्रता दिवस पर समारोह मनाना अपनी सशक्त जिम्मेदारी समझते हैं। समारोह मनाकर अपनी जिम्मेदारियों से इति श्री कर लेने में ही खुश हो जाते हैं। आजादी की वर्षगाँठ मनाने के साथ ही कुछ भारतीय अपने बहुत सारे फालतू समय में से कुछ समय निकालकर यह सोचने कि चिंता प्रस्तुत करते हैं कि क्या आज वाकई मैं हम स्वतंत्र है? यदि नहीं तो फिर यह समारोह क्यों? हम समारोह नहीं भी मनाएँगे तो भी इसका कोई विशेष असर देश की सेहत पर नहीं पड़ेगा जितना कि बुरा असर वर्तमान में महँगाई, भ्रष्टाचार, जम्मू-कश्मीर की हिंसा और अतिक्रमण, देश में फैल रहे नक्सलवाद और पूर्वोत्तर राज्यों में चल रही नाकेबंदी से पड़ रहा है। 
     आज की विचारधाराएँ बदल गई हैं। समय बदल गया है। राजनैतिक सोच बदल गई है। सामाजिक संदर्भ और हालात बदल गए हैं। आज कही भी देश की चर्चा प्रारंभ होते ही हम गतिशीलता और विकास का दम भरते हैं। यहीं है विकास कि मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 76 किमी दूर चुगा नदी पर बना चुगा बाँध 29 वर्षों में जाकर पूरा हुआ है। झारखंड की नार्थ कोयल या बटाने जलाशय परियोजना। बटेश्वरनाथ, तिलैया झाझर परियोजना के साथ ही बिहार की धनाजरै फुलवरिया जलाशय परियोजनाओ के अतिरिक्त कई बाँध और बिजली परियोजनाएँ 35 वर्षों से जहाँ की तहाँ पड़ी हुई हैं। केवल उत्तर-प्रदेश में ही एक हजार करोड़ से अधिक की अनेक परियोजनाएँ राजनीति की चक्की में फँसी हुई हैं। अच्छे दिन की कल्पना में जनता जून की कैरियों में एक ही महिने में जुलाई का पका आम ढूँढ रही है कि हमने कैरियाँ देखीं, अब आम का स्वाद चाहिए। विदेशों में जाकर बस रहे डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, आईटी प्रोफेशनल्स, अंतरिक्ष विज्ञानी आदि इस बात का सबूत हैं कि देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, मगर देश में इनके लिए अवसर नहीं हैं। जो अवसर पैदा करने का खाका खींचे वह राजनीति-प्रेरित कहलाता है। कम इन्फ्रास्टक्चर में कम ही अवसर मिलेगा। अवसर बढ़ाने के लिए इन्फ्रा बढ़ाना पड़ेगा। इन्फ्रा बढ़ाने में समय लगेगा। समय की प्रतीक्षा के लिए हम सभी को सहनशीलता दिखाना चाहिए।
     जो है उससे सबको बहुत असंतोष है। जो नहीं है, उसकी कल्पना में मन मचला जा रहा है। बहुत चिंता है। चिंता और विरोध के अंधकार में हम जो है उसकी सुन्दरता को देख ही नहीं पा रहे हैं। हम देख ही नहीं पा रहे हैं कि परिवार में आपसी कलह भले होता है, मगर कोई गैर हस्तक्षेप करे तो सभी एकजूट होकर उसका मुँह तोड़ने को तत्पर हो जाते हैं। हम देख ही नहीं पा रहे हैं कि भारत उनतीस राज्यों का समुच्चय होते हुए भी एकता के सूत्र में एकीकृत है। हम भारत के विविधता में दृढ़ता की कथा को समझ ही नहीं पाते। हम असंतुष्ट होने का परिचय तो देते हैं, परन्तु एकीकृत होने की खुशहाली को अनुभव ही नहीं कर पाते। ऐसे में जब आदमी स्वयं के वैभव से असंतुष्ट रहेगा तो गैर हाथ साफ करेगा ही। यहाँ प्रोमो की लड़की का संवाद याद आता है कि हम सब स्वतंत्रत हैं, जानते भी हैं, आदर भी करते हैं, पर स्वयं से असंतुष्ट होने के कारण मानने को तैयार नहीं रहते। नहीं रहते तो ऐसे विचार रखने वालों को सावधान होना पड़ेगा। आपके विरोध का अगर थोड़ा भी स्वरुप विकृत हुआ तो वह देशद्रोह का भी नाम हो सकता है।
     अगर हम इन राष्ट्रीय पर्वों के झरोखे से ही देखें तो पता चलेगा कि अपने भारत के कई रूप हैं। सृष्टि के सृजन से लेकर प्रथम मानव के साथ आज का गतिशील भारत अनेक रूपों में दिखाई देता है। पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस को परिस्कृत हुआ भारत आज भी समय-समय पर विश्व समुदाय में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रहा है। आज का भारत विकासशील होते हुए भी बहुत कुछ प्राप्त कर चुका है। कर रहा है। सशक्त भी है। प्रेम का पुजारी तो सनातन से रहा है, आज का भारत निर्भय भी है। आज हम विश्व की संकीर्णता के घेरे को पार कर चुका है। अनेक बार शत्रुओं का संहार कर चुका है। सत्य की गहराई में गोता लगाकर सत्य बता चुका है। सत्य सिद्ध कर चुका है। आज का भारत अथक परिश्रम कर के पहाड़ों का सीना चीर कर रेल और सड़कें बिछा चुका है। आगे कर भी रहा है। नदियों के नव उन्माद को कठोर बाँधों से काबू में कर के विद्युत पैदा कर रहा है। आज भी भारत तर्क-शक्ति में प्रखर है। पावन आचरण से अमृत बरसाने वाला है। 
     भारत में शौर्य है तो सुन्दरता भी कम नहीं है। भूख है तो भावना भी कम नहीं है। यहाँ के भौगोलिक परिक्षेत्र में रेतों का अंबार है तो वनों का आच्छादन भी है। शुष्कता का कहर है तो जल का आप्लावन भी है। भारत सतत् विशालता को चाहता है। यह देश विशाल भू-भाग पर फैला है। यह देश उदारमना मनीषियों का देश है। यह विचारशीलों और कर्मयोगियों का देश है। यहाँ ‘सर्वे संतु निरामया’ की कामना की जाती है। यहाँ पर प्रत्येक के मानस में ‘वसुधैव-कुटुम्बकम्’ की ऋचा-वेणी प्रवाहित होती है। सबके श्वाँस से ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का गंध स्फूटित होता है। यह देश सभी धर्मों का है। सामासिकी संस्कृति का एक मात्र उदाहरण है। भारत की इसी भावना ने तो इसे चिरंतन स्वतंत्र, अखंड और अमिट बनाया है। 
      आज के क्लिक के इस दौर में, जहाँ सिक्स पैक एब्स सबसे बड़ी चाहत हो, जहाँ हर चमकती चीज को सोना बता कर बेचा जा रहा हो, जहाँ गुगल गाॅड के बदौलत चुटकियों में ज्ञान मिल रहा हो और जहाँ भ्रष्टाचार, घृणा फैलाने और अपराध के संगीन आरोप के बीच भी लोकतंत्र के कई अप्रिय नायक बार-बार चुने जा रहे हों, जहाँ कॉस्मोपॉलिटन प्रांतीय नेताओं की नई पीढ़ी भी जातिगत राजनीति में डूबी हो, जहाँ ‘वादा तो टूट जाता है’ के तर्क पर वादे बहुत और नतीजे बेहद कम आते हों और जहाँ कामयाबी का मतलब भगवान वामन की तरह दो पग में जग नापने जैसी बात हो गई हो, वहाँ आज हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस का औचित्य क्या है? आज का मनुष्य अपने कुतर्कों से अपने पक्ष में चाहे लाख दलीलें तैयार कर लें, लेकिन स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय के लिए एक उत्सव है। इस उत्सव पर हम मन-ही-मन स्वयं से एक वादा करते हैं कि हर हाल में हम अपनी आजादी को संभालकर रखेंगे। अपनी असंख्य विशिष्टताओं से संसार में अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका भारत निरंतर ही विकास के सोपान पर नव-गति से आरोह कर रहा है। 
     जहाँ आज़ादी के लिए देश ने बहुत कुछ खोया, वहीं आज आज़ादी के बाद बहुत कुछ पाया है। भारत की पावन धरती पर निरंतर नवीन संरचना को देखा जा सकता है। मेरे काॅलेज के दिनों तक भी जिन गाँवों-देहातों में जाने के लिए निश्चत पगडंडियाँ तक नहीं होती थीं, वहाँ आज बलखाती सड़कें दौड़ने लगी हैं। माह बीत जाने पर भी जहाँ किसी परदेशी का संदेश नहीं पहुँच पाता था, वहाँ आज परिवार के प्रत्येक सदस्य के हाथ में मोबाइल बजने लगा है। जहाँ हजारों बस्तियाँ अंधेरी रात द्वारा लील ली जाती थीं, वहाँ अब रौशनी के तार दौड़ गए हैं। मनोरंजन के लिए नाच़-नौटंकी तक ही सिमटे लोग अब दूरदर्शन के सैकड़ों चैनलों में भटक रहे हैं। ‘छोटा-परिवार’ के विज्ञापन के साथ ‘वहीं सिकंदर’ के मजमून को समझने लगे हैं और नए फैशन पर बहकने लगे हैं। भारत के कण-कण में जानने के साथ-साथ मानने के लिए भी बहुत कुछ है। विकास की सच्चाई है तो औद्योगिक संपन्नता का शंखनाद है। 
    विकास की सत्यता के साथ ही यह भी निर्विवाद स्वीकार्य है कि इस पाने के क्रम में मनुष्य ने बहुत कुछ खोया भी है। भीतर का मनुष्य मरा है। संवेदनाओं की ज़मीन और सिकुड़ी है। जागरूकता का क्षेत्र छोटा हुआ है। अंदर का जानवर जवान हो गया है। आए दिन जननियों, बहनों, बेटियों के अस्मतों को रौंदने के मेले का आयोजन हो रहा है। घुसपैठिये अपने नापाक ईरादों का दस्तावेज़ पेश कर रहे हैं। आम जनता विवशता की गाड़ी को बड़ी ही बेचारगी से खींच रही है। सामाजिकता का स्वरूप व्यक्तिगत मुखौटों में कैद है। परमार्थ मारा जा रहा है। स्वार्थ का अर्थ सबने समझ लिया है। स्वतंत्रता से असंतुष्टि है और गणतांत्रिक स्वरूप विखंडित हो रहा है।  बात-बात में दंगे अपना दाँत दिखाकर डराने गले हैं। देश की इन विसंगतियों में केवल राजधानी ही नहीं, उनमें सरीक होता आम आदमी भी जिम्मेदार है। बात फिर वहीं उठती है कि इन विसंगतियों का दुष्परिणाम हो या इने दोषियों की बात हो, उनका देश के लिए घातक होना जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं? देश के लिए सभी पक्षों को भी जानते सभी हैं, पर स्वीकार करने में अभिमान आड़े आ जाता है। भले ही देश का स्वाभिमान बलि चढ़ जाए, मगर झूठा अभिमान न कम हो की भावना पता नहीं हमें कहाँ लेकर जाएगी?
     हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति समन्वयात्मक है। इसे सुदृढ़ करने में जितना योगदान पण्डितों-ज्ञानियों का है, उतना ही साधु-संन्यासियों का है। इस संस्कृति को ख्वाज़ाओं ने भी सँवारा है तो पीर-औलियों ने भी, मस्जि़द के मुल्लाओं ने भी। गुरुनानकदेव ने भी, उनके वंशजों ने भी, ईशु के अनुयायियों ने भी, बुद्ध और महावीर जैन के साधकों ने भी। हमें किसी भी स्थिति में नहीं भूलना चाहिए कि यह देश एक राष्ट्रपति, एक प्रधानमंत्री और एक राजधानी का देश है। एक गान और एक तिरंगे का देश है। यह कश्मीर का भी देश है और कन्याकुमारी का भी। यह अमृतसर और गुवाहाटी का देश है। बर्फ से पठार तक का देश है। थार से चेरापूँजी और मासीनराम का देश है। रेतीले रेगिस्तान का भी देश है, मूसलाधार वर्षा का भी देश है। अपना देश सूखे का है तो तूफानों का भी है। कावेरी और महानदी का है। कोसी और गंडक का है। जल के विवाद का है। जल से त्रासदी का है। इस धरती पर आज भी किसी-न-किसी कोने में राम-कृष्ण और बुद्ध मिल जाएँगे। कही हज़रत निज़ामुद्दीन भी मिल जाएँगे तो वहीं किसी ठाँव सलीम और मोइनुद्दीन चिश्ती भी गलबाँही करेंगे। देश के अनेकता की साक्षी पंचतारा होटले हैं तो फूटपाथ की जि़ंदगी भी है। दोनों ही जगह कोई भेदभाव नहीं रहता।
    हर बात में अपनी असंतुष्टि प्रकट करने वालों! भारत देश को एक बार समझ कर तो देखो। आपकी पहले वाली समझ बदल जाएगी। विकास की गति को छलावा कहने वालों का स्वर बदल जाएगा। अब तो हर जगह शहर-ही-शहर, गाँव-ही-गाँव। दिल्ली के दरबार से नित-नए समाचार तक। शहरी आकर्षण से गाँव-जवार तक। चारों और विविधता तो दिखाई पड़ेगा, मगर उनके जब हम गौर से देखें तो सबका मन एकता के धागे से एकीकृत दिखाई देगा। देश की यहीं अद्भुत गाथा है कि अनेक विविधता के बीच भी देश अबाध गति से प्रगति कर रहा है। प्रगति के इस युग में हम भी सम्मिलित हैं, हम भी लाभान्वित हैं परन्तु हम भी असंतुष्ट हैं। फिर वहीं यक्ष-प्रश्न समक्ष होता है कि इन सब बातों को जानते तो सभी हैं, पर मानते कितने हैं? कई बार मैं भी तो नहीं मानता। कई विचारधाराएँ मेरे लिए भी तो असह्य हैं। तो क्या प्रगति में हिस्सेदार बनने की अपेक्षा सिर पीटता रहूँ? कम से कम अपने अमर शहीदों को नमन करने के लिए ही सही, पंद्रह अगस्त को एक उत्सव का स्वरूप तो देना ही चाहिए।
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                      (यह लेख 'भोजपुरी-पंचायत' पत्रिका के अगस्त अंक में प्रकाशित हो चुका है।)

Sep 18, 2014

पारंपरिक भोजपुरी गीतों में वैवाहिक-विधान


    हिन्दू धर्म में सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के संभ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे तो उसे रोकें और प्रताड़ित करें। पति-पत्नी इन संभ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह-संस्कार है।
    भारत में भाषायी और सांस्कृतिक वैषम्य होते हुए भी अपने-अपने लोक-पक्ष की विशिष्टता है। अपनी लोक-संस्कृति से भी लगाव है। उसकी अपनी मर्यादा है। अपनी पहचान है। कठिन परिस्थितियों में लोक-जीवन सरसता भरने का नाम है। ज्ञान की गरिमा का यशगान करने का नाम है। इन दिनों चारों ओर वैवाहिक कार्यक्रमों की धूम है। आधुनिक सूचना तकनीक के इस युग में बारात से लेकर विवाह समारोह तक में इस्तेमाल होने वाली कई चीजें हाइटेक हो गई हैं। इन सबके बीच विवाह में जिस एक पक्ष की लोकप्रियता व जादू हमेशा की तरह बरकरार है, वह है हमारा पारंपरिक गीत।
    संपूर्ण भारत में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन-पूजन किया जाता है। भोजपुरिया संस्कृति में गोबर से मनुष्य की प्रतिमा बनायी जाती है। वह प्रतिमा इंद्र की प्रतिकृति होती है। उस प्रतिमा को फूल-मालाओं से सुसज्जित किया जाता है। उस दिन बहने भैया-दूज मनाती हैं। इस क्षेत्र में गोवर्धन-पूजन के साथ ही विवाहोत्सव का लग्न प्रारम्भ होता है। उसके लिए गोवर्धन-पूजन के बहाने ही लग्नदेव को उठाया जाता है। सोये हुए लग्नदेव को जगाने के लिए स्त्रियाँ गा उठती हैं -
उठहू ए देव उठहू ए
सुतले भइले छव मास,
तहरा बिना बारी ना बिअहल जाय
बिअहलइ ससुरा न जाय।।
    हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों की बात कही जाती है। ये सभी संस्कार मनुष्य को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया के निमित्त होते हैं। मानव जीवन में विवाह सबसे प्रसिद्ध और मुख्य संस्कार माना जाता है। विवाह से अधिक महत्ता किसी अन्य संस्कार का नहीं है। उस अवसर वर और वधू दोनों के घर वैवाहिक गीत गाए जाते हैं। कन्या के यहाँ से तिलक ले जाने की तैयारी का एक चित्र देखिए -
केइएँ रंगेला हांडा 
केइएँ पीअर धोती
अवध जइहें तिलक।
     राम हमारे लोक-संस्कृति के महानायक हैं। वे वैवाहिक गीतों में वर का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा सीता कन्या का। इसका प्रमाण हमारे यहाँ गाए जाने वाले वैवाहिक गीतों में समय-समय पर मिलता रहता है। तिलक जब वर के द्वार पर पहुँचता है तब सुहागिनें गा उठती हैं -
तिलक आए रघुवर के
राम लछुमन के
भरत शत्रुघन के
अवधपुर भारी है।
  आजकल हिंदू समाज में सामान्य तौर पर विवाह का जो रूप प्रचलित है, वह ब्रह्म और दैव विवाह का मिश्रण है। इस विवाह पद्धति में तिलक और विवाह में कुछ दिनों का अंतराल रहता है। इस अंतराल में दोनों घरों में शगुन उठता है। एक गीत -
केइएँ रे शगुनवा राम गइले
सीता के लेई अइलें
कोसिला मनवा हरषित।
बीनवा के देखुएँ मछरिया लिहले
अमवा मोजरिया लिहले
गोदीया बलकवा लिहले
ओही रे शगुनवा राम गइले
सीता के लेई अइलें
कोसिला मनवा हरषित।
    बारात सजने का अलग ही आनन्द होता है। बारात का सजना घर-परिवार, हित-रिश्तेदार, गाँव-पड़ोसी, स्त्री-पुरुष, सबका सजना होता है। बारात जब वर के घर से निकलता है तो टोला-मुहल्ले के बाहर स्त्रियाँ वर का परिछावन करती हैं। माँ भी परिछावन करती है। माँ तो माँ होती है। विवाह करने जाने वाले बालक की माता सोचने लगती है कि दूध के बिना कही बेटे का मुँह सूख न जाए। इसका उल्लेख परिछावन गीतों में अधिकता से होता है। मैं तो सोचता हूँ कि शायद इसी वजह से परिछावन के समय माता वर को ‘स्तन-पान’ कराती है।
     वैवाहिक गीत कन्या पक्ष में ही अधिक होते हैं। इसका कारण एक यह भी है कि समस्त वैवाहिक विधान कन्या के घर पर ही सम्पन्न होते हैं। वर तथा कन्या के घरों में गाए जाने वाले गीतों में पार्थक्य हो जाता है। जहाँ वर पक्ष के गीतों में उत्साह की प्रचुरता रहती है, वहीं कन्या पक्ष के गीत बड़े ही करुण और मर्मस्पर्शी होते है। इनका उदाहरण हम ‘द्वार-पूजा’ के गीतों से ही देख सकते हैं। विवाह हेतु बारात जब द्वार पर आती है, तो सर्वप्रथम वर का स्वागत-सत्कार किया जाता है। वर के द्वार पर आते ही कन्यादाता वर सत्कार के सभी कृत्य करते हैं। जब वैवाहिक-व्यवस्था से थके पिता सो जाते हैं तब उन्हें कन्या जगाती है। उसे भी चिंता है कि पिता के सो जाने पर द्वार पर आए बारात का आव-भगत कौन करेगा? इस तरह पिता का मान-मर्दन हो जाएगा। वह कहती है -
कोठा के ऊपर कोठरिया ए बाबा
केतना सुतेनी निरभेद
सजन लोगवा भीड़ अइले।
    द्वार-पूजा के बाद कन्या-निरीक्षण में वर के अग्रज एक तरह से कन्या को अधिगृहित करने जाते हैं। परम्परानुसार अग्रज बन्धु द्वारा दुल्हन का पूर्वावलोकन और सांकेतिक प्रथम और अंतिम स्पर्श करता है। उस समय अग्रज द्वारा दुल्हन को वस्त्र, आभूषण और उपहार भेंट किया जाता है। उसके बाद आजीवन वह कभी उसका स्पर्श नहीं कर सकता। उस वातावरण में कन्या पक्ष की स्त्रियों द्वारा उनके साथ हास-परिहास होता है। उनके लिए स्वागत गीत गाया जाता है। एक दृष्टान्त देंखे -
एही बड़ भसुर जी के आरती उतारीं हे
भूषन बसन लाये बहुत सम्हारी हें।
    जहाँ पारिवारिक स्तर के परम्परागत विवाह आयोजनों में मुख्य संस्कार से पूर्व द्वारचार (द्वार पूजा) की रस्म होती है, वहाँ यदि हो-हल्ला के वातावरण को संस्कार के उपयुक्त बनाना सम्भव लगता है तो स्वागत तथा वस्त्र एवं पुष्पोपहार वाले प्रकरण उस समय भी पूरे कराये जाते है। पारिवारिक स्तर पर सम्पन्न किये जाने वाले विवाह संस्कारों के समय कई बार वर-कन्या पक्ष वाले किन्हीं लौकिक रीतियों के लिए आग्रह करते हैं। विवाह-संस्कार का नवम चरण कन्यादान होता है। इसी विधि में पिता द्वारा अपनी पुत्री का ‘कन्यादान’ किया जाता है। कन्यादान का अर्थ अभिभावकों के उत्तरदायित्वों का वर के ऊपर, ससुराल वालों के ऊपर स्थानान्तरण होना है। अब तक माता-पिता कन्या के भरण-पोषण, विकास, सुरक्षा, सुख-शान्ति, आनन्द-उल्लास आदि का प्रबंध करते थे, अब वह प्रबन्ध वर और उसके कुटुम्बियों को करना होगा। कन्या नये घर में जाकर विरानेपन का अनुभव न करने पाये, उसे स्नेह, सहयोग, सद्भाव की कमी अनुभव न हो, इसका पूरा ध्यान रखना होगा। कन्यादान स्वीकार करते समय पाणिग्रहण की जिम्मेदारी स्वीकार करते समय, वर तथा उसके अभिभावकों को यह बात भली प्रकार अनुभव कर लेनी चाहिए कि उन्हें उस उत्तरदायित्व को पूरी जिम्मेदारी के साथ निबाहना है।
तत्पश्चात ‘सिंदूरदान’ का कार्य सम्पन्न होता है। हमारे समाज की विडंबना और व्यवस्था देखिए कि सिंदूरदान के बाद मात्र चुटकी भर सिंदूर को माँग में भरकर एक कन्या नारीत्व को धारण कर लेती है। उसके बाद कन्या के यहाँ का संपूर्ण वातावरण करुण हो जाता है। उस करुण वातावरण को हास्यपूर्ण बनाने के लिए ‘कोहबर’ की विधि होती है। कोहबर के गीतों में संभोग श्रृंगार की अधिकता होती है। उन गीतों का वर्णन आज के व्यवसायिक गीतों के मुखड़ों से भी कई मीटर ऊँचे परम्परा और शील के शिखर विराजमान नजर आते हैं। देंखे - 
झोंपा-झोपारी कि फरेला सुपारी
तरे नरियरवा के डारी
तेही तले सेजिया सजावेली कवन देई
केहू आवे ना केहू जाई।।
इस समूचे चक्र के बाद दुल्हन बनी कन्या अपने परिजनों से विदा होकर सिर्फ एक रिश्ते से पूरी दुनिया सजाने परजनो को अपना बनाने चल देती है।
     नगरों-महानगरों में अपनी यह वैवाहिक परंपरा आज समय के साथ बदलाव का वास्ता दे कर जहाँ मोटरों और भीड़ के षेर में दब कर सिसकियाँ ले रही हैं, वहीं आज भी बहुत से लोग अपने आंगन से मदिर के प्रांगण तक ही सही, इसे हृदय से चिपकाए हुए हैं। लोक रीतियों का यह वैवाहिक संस्कार कभी-कभी न्यायालयों के प्रांगण में वकीलों के पाण्डित्य से ही चंद तहरीरों के माध्यम से भी फेरा लेकर पूर्ण हो जाता है। 
     हमारे परंपराओं का, संस्कारों का वास्तविक आनन्द गाँवों-देहातों में मिलता है। गाँवों में अधिकांश घर कच्चे होते हुए भी लिपे-पुते और सुन्दर होते हैं। उन घरों पर लहराती लौकी, तरोई और कद्दू की लताएँ मानव मन को बरबस आकृष्ट कर लेती हैं। गेरु और चूने से दीवारों पर की गई नक्कासियाँ भी पुकारती हैं कि अतिथि देव आइए! . . . इस घर में तिलक है या व्याह है। . . . आइए, आपका स्वागत है।
       इस यथार्थ चक्र को प्रतिवर्ष गोवर्धन-पूजा या भैया-दूज या यम द्वितीया या देव उठान से प्रारंभ कर छह माह की यात्रा पूरी की जाती है। लग्न देव थक कर विश्राम करने लगते हैं। पुनः-पुनः प्रतिवर्ष ‘उठहू ए देव’ गा-गाकर जगाया जाता है और भोजपुरिया माटी मँहकायी जाती है।
                                                              --------------------------
                                                                                                                          - केशव मोहन पाण्डेय 

'साहित्य साधना है, व्यसन नहीं' (साक्षात्कार)

    सजग चेतना वालों में सिसृक्षा का बीज बोने का निरंतर काम करने वाले साहित्यकार श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अर्थात रूद्र देव नारायण श्रीवास्तव का जन्म 10 दिसंबर 1939 को ग्राम बैरिया, नन्दा छपरा, रामकोला, जनपद कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) में हुआ। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. किया परन्तु रचनाएँ हिंदी में करने लगे। उन्होंने लोकमान्य इंटर कालेज, सेवरही कुशीनगर (उत्तर-प्रदेश) से प्रधानाचार्य पद से अवकाश लिया है। उनकी रचनाओं की धार बहुत ही तीक्ष्ण होती हैं। वे अपने अंदाज़ में ग़ज़ल लिखते हैं, अपने अंदाज़ में पढ़ते हैं। उनकी कविताएँ हास्य और व्यंग्य की पिटारा हैं। ‘वक्त की परछाइयाँ’, ‘ये ग़ज़ल’, ‘कविता समय’, ‘शब्द कुंभ’, ‘सितारे धरती के’, ‘मोती मानसरोवर के’, ‘नव ग़ज़लपुर’ के अतिरिक्त ‘थाल में बाल’ (2010), दिल भी है, दीवार भी है’ (2014) प्रकाशित कृतियों में उनकी विचारधाराओं को, मानदंडों को और जीवन-मूल्यों को निरखा जा सकता है। समय-समय पर अन्य पत्र-पत्रिकाओं के अतिरिक्त आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से हमेशा प्रसारित होते रहने वाले श्री श्रीवास्तव वर्तमान समय में गोरखपुर में रहते हुए आज भी अनेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहते हैं। 
     श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव की ग़ज़लें जहाँ अपने मतला, रदीफ़ और काफि़या की बुनावट के लिए समीक्षकों को आकर्षित कर लेती हैं, वहीं अपने विषय-शिल्प, शब्द-संयोजन और चित्र-प्रस्तुति के कारण पाठकों और श्रोताओं को अपना बना लेती हैं और उनका हो जाती हैं। वे जितने ही सुलझे व्यक्ति हैं उतने ही एक लोकप्रिय प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं। उनकी सोच विलक्षण और भावात्मक होने के साथ-साथ सामाजिक प्रतिबिंब को प्रदर्शित करती हैं। ‘कुत्ता और कर्फ्यू’ का कुत्ता किसी रईस के घर का दुलारा टाॅमी या चीकी, पीकी नहीं है, वह सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ अपने शोषण के विरूद्ध आवाज बुलंद करता है। आज का कुत्ता केवल दुम हिलाता अनुकरण और स्नेह-प्रदर्शन नहीं कर रहा है, वह चीख-चीखकर चिल्लाता है और सामने वाले की मानसिकता को ललकारता भी है। 

     कलमकार की सार्थकता सामाजिक सोच की दृष्टि पर ही निर्भर करती है। कलमकार समाज को अपनी ही दृष्टि से देखता है और समाज के सामने उसी का चित्रांकन करता है। श्री आर. डी. एन. श्रीवास्तव अपने समाज के नव-रचनाकारों को पहचानते भी है, तैयार भी करते हैं और आगे बढ़ाने का कार्य भी करते हैं। उनकी ग़ज़लें जितना चमत्कृत करती हैं, उनके व्यंग्य उससे अधिक अवाक्। उनके व्यंग्य समाज के दर्पण तो हैं ही, यथार्थ का चित्रण भी है। सीधे शब्दों की मारक क्षमता बड़ी तीखी होती है। सहज शब्दों का ऐसा चमत्कार देखना हो तो उनकी किसी भी कविता को देखा जा सकता हैं। -
'वह आदमी पूर्णतया ईमानदार है।
एकदम खरा सोना है
बिलकुल बेकार है।'
सौभाग्य से मुझे दो दिनों तक उनका सानिध्य मिला। मैं उन क्षणों का पूर्णतः सुख लेना चाहता था। आज्ञा मिली तो साहित्य के विविध मुद्दों पर उनका विचार जानना चाहा। प्रस्तुत है उनसे लिया गया मेरा साक्षात्कार -
प्रश्न - सर, आप मूलतः अ्रगेजी विशय के प्राध्यापक रहे हैं। अंग्रेजी विशय के साथ ही आपको हिंदी में रचना के प्रति रूचि और साधना की प्रेरणा कब, किससे और कैसे मिली?
उत्तर - प्रिय केशव मोहन जी, अंग्रेजी के प्रति छात्र जीवन से ही मेरा स्वाभाविक रूझान रहा। और हिंदी तो अपनी मातृभाषा ही है। मैं सन 1951-53 में हाई स्कूल का छात्र था। तब विज्ञान विषय प्रारंभिक अवस्था में था। विज्ञान पढ़ने वाले छात्र स्वयं को शेष छात्रों से श्रेष्ठ मानते तथा शेष छात्र उनको अछूत। कला-साहित्य का बोलबाला था। अंताक्षरी स्वस्थ मनोरंजन का साधन था। आगे चलकर जो ‘क्रेज़’ क्रिकेट का बना, वही उन दिनों अन्ताक्षरी का था। विद्यालयों में अंतरजनपदीय प्रतियोगिताएँ भी होती थीं। गीत, कविताएँ, दोहे, चैपाइयाँ, कुण्डलिया आदि रटना, याद करना अनिवार्य सा था। सिनेमा के गीत चोरी-चोरी गाये जाते थे। मुझे भी काफी कविताएँ कंठस्थ हो गई थीं। इंटर व बी.ए. कक्षाओं में शेरो-शायरी से भी परिचय हो गया। उनको भी जमकर पढ़ा। ज़ाहिर है प्याला भरेगा तो छलकेगा ही।
प्रश्न - आपकी कविताओं का दो अलग रूप देखा जाता है। एक व्यंग्य और दूसरा ग़ज़ल। इस समन्वय को कुछ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -  सही है, मैं हास्य-व्यंग्य की कविताएँ भी करता हूँ और ग़ज़लें भी करता हूँ। व्यंग्य का प्रवेश तो हर जगह है क्योंकि समाज में अन्याय और असमानता कहाँ नहीं है। क्रौंच-बध के कारूणिक दृश्य ने ही आदि कवि के क्रोध को कविता का रुप दिया। यदि वाल्मीकी जी ने क्रोध में आकर शिकारी की हत्या कर दी होती तो क्रौच-बध अथवा वाल्मीकी को कोई नहीं जानता। यह व्यंग्य ही है जो कलमकार को कलम और चित्रकार को तूलिका उठाने की अभिप्रेरणा देता है। कविता, नाटक, निबंध, उपन्यास, कहानी - व्यंग्य की पहुँच कहाँ नहीं है। कविताएँ स्कूली दिनों में लिखता था। ग़ज़ल पढ़ते रहने के साथ-साथ ग़ज़ल लिखने का कार्य स्वतः शुरू हो गया।
प्रश्न - सर आपकी कविता का विषय कुछ भी हो, परन्तु उसकी गति बहुत तीक्ष्ण होती है। अपने अनुभवों से पाठकों को भी परिचित कराइए।
उत्तर - आपने कहा कि मेरी कविता की गति बहुत तीक्ष्ण होती है। जब कोई बात मन को छू जाती है, कोई अन्याय भीतर से झकझोर देता है तो उसकी सहज प्रतिक्रिया होती है। बात निकल जाती है। विचार करता हूँ तो लगता है इसके लिए मुझे ‘सेक्सपीयर’ या ‘जाॅन ड्राइडन’ का ऋणि होना चाहिए। कभी-कभी लगता है कि यह तीक्ष्णता स्वाभाविक है, क्योंकि मित्रगण मूलतः व्यंग्यकार के रूप में ही मेरा परिचय देते हैं। जो अनुचित है उसका विरोध निर्मम होकर करना चाहिए।
प्रश्न - सर, लगभग आठ पुस्तकों में सहप्रकाशन के साथ-साथ आप आकाशवाणी से अनवरत प्रसारित और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे, परन्तु आपकी पहली स्वतंत्र पुस्तक ‘थाल में बाल’ 2010 में आयी। स्वचंत्र पुस्तक आने में इतने बिलंब का कोई विशेष कारण?
उत्तर - स्वतंत्र पुस्तक के देरी से आने के पीछे क्या सफाई दूँ। सब मेरे आलस्य का परिणाम है। यह सही है कि जीवन भर पारिवारिक जिम्मेदारियों से दबा रहा, फिर भी रचनाओं को समय से लिखकर उनको संभल तो सकता ही था। ‘एडिसन’ ने कहा है कि युद्ध की अपेक्षा आलस्य ने राष्ट्रों को अधिक क्षति पहुँचाई है। ये प्रकाशन भी यूँ ही नहीं आये हैं। मित्रों ने क्या नहीं कहा? केवल मारा-पीटा नहीं। आज इन संग्रहों को देखकर मित्रों के प्रति आँखें कृतज्ञता से नम हो जाती हैं। दिनकर जी ने सच ही कहा है, -
‘मित्रता बड़ा अनमोल रतन
कब उसे तौल सकता है धन’

प्रश्न - आने वाले समय में कौन-सी कृति हमें पढ़ने को मिलेगी? उसकी विधा और विशय-वस्तु पर प्रकाश डालिए।
उत्तर - ‘थाल में बाल’ के बाद ‘दिल भी है, दीवार भी है’ ग़ज़ल-संग्रह अगस्त में आया है। फिर एक दोहा संग्रह। साथ में हाइकु कविताओं का संग्रह निकालने की चेष्टा होगी। धार तो व्यंग्य की ही रहेगी।
प्रश्न - सर, देखा जाता है कि आज का साहित्यकार कहीं न कहीं राजनीति से प्रेरित होता रहा है। साहित्य के राजनीतिकरण पर आपका क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर - राजनीति को मौकापरस्त, कुटिल लोगों ने बदनाम कर दिया है। यहाँ तक की उसकी परिभाषा ही बदल डाली है। राजनीति और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। धर्म कहता है सत्य पर चलो। राजनीति कहती है असत्य से जूझो। फिर तो राजनीति धर्म का सक्रिय रूप है। सामाजिक मूल्यों की स्थापना के लिए निरंतर होने रहने वाले संर्घष का नाम धर्म है तथा उसी प्रयोजन हेतु काल विशेष में होने वाले संघर्ष का नाम राजनीति है। जब राजनीति के वर्तमान स्वरूप राजनीति में ही नहीं होना चाहिए तो साहित्य में उसके होने का क्या औचित्य है? मेरे विचार से युग-पुरुष दो प्रकार के होते हैं, - एक तो वे जो निधन के बाद भी युगों-युगों तक याद किए जाते हैं। दूसरे वे जो केवल अपने युग के पुरुष होकर समस्त भोगों का रस लेते हैं और निधन के बाद अतीत के अंधकार में विलीन हो जाते हैं। राजनीति करने वाले साहित्यकार न तो अपना भला करते हैं और न तो साहित्य का ही।
प्रश्न - यह कहा जाता है कि साहित्यकारों, विषेशकर मंचीय कवियों में बहुत ही गुटबंदी देखी जाती है। आप अपने आप को कहाँ पाते हैं?
उत्तर - जो गुटबंद है, वह साहित्यकार नहीं है। वह तो साहित्य के ‘कार’ पर सवार सुविधाभोगी लिखने वाला है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मुझको मेरे इस शेर से देख लें, - 
‘न समीकरण मैं बना सका, न अदावतें ही निभा सका
मैंने खुद को देखा हर एक में, मुझे ग़म नहीं कि सिफ़र में हूँ।’
प्रश्न - साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। आज का कवि वातानुकूलित कमरों में बैठकर ग्रामीण जीवन का चित्र खींचने लगता है। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर - साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। अरे यार, साहित्य समाज का दर्पण है। कहा जाता क्या होता है? स्वस्थ साहित्य लिखने के लिए संवेदना सहित अन्तर्दृष्टि चाहिए। अब लिखने वाला चाहे वातानुकूलित कक्ष में हो या छोटी सी कोठरी में। न्यायप्रियता और ईमानदारी आवश्यक है।
प्रश्न - आज का कवि बड़ी संख्या में सोसल-साइट्स पर आने लगा है। वहाँ प्रकाशित भी होने लगा है। बहुत सार्थक टिप्पणियाँ भी पाता है। काव्यत्व के इस बदलाव पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
उत्तर - आज ‘इलेक्ट्राॅनिक मीडिया’ के युग में जब वे सारी चीजें व्यापक प्रचार-प्रसार पा रही हैं, जिनको कमरे के बाहर कत्तई नहीं आना चाहिए तो साहित्यकार का प्रचार-प्रसार स्वाभाविक भी है और उचित भी। वैसे रचना ही उसी यशस्वी बनाएगी, प्रचार-प्रसार नहीं।
प्रश्न  - सर, आपके विचार से आज की कविता का भविष्य क्या है?
उत्तर - कविता का भविष्य तो सदैव से उज्ज्वल रहा है और रहेगा भी। जब तक मानव रूपी जीव के सीने में हृदय रूपी विध्वंसकारी यंत्र रहेगा, कविता होती रहेगी। अब तो ज़ेहन के भी उसके साथ रहने की बात होती है। अपना ही एक मतला पेश है, -
‘बात खुश्बू है तो फिर उसको बिखरनी चाहिए
दिल में उतरे तो ज़ेहन में भी उतरनी चाहिए।’
    इसके आगे की सोच तो यह कहती है कि जो ज़ेहन में उतर रहा है उसे दिल में भी उतरना होगा। तभी मानव समान और मानवीय मूल्य क़ायम रह पायेंगे। 
प्रश्न - आपके विचार से आज की कविता पर किस विचार धारा का प्रभाव है?
उत्तर - एक शब्द है ‘मार्क्सवाद’ जो भावना के स्वरूप् में कार्ल मार्क्स के पूर्व भी था आज भी है और आगे भी रहेगा। सामान्य व्यक्ति के द्वारा व्यवस्था की बुराइयों का खुल कर विरोध कब नहीं हुआ है। कवि सदा से क्रांतिकारी और व्यवस्था विरोधी रहा है। आज के विप्र समाज को गोस्वामी तुलसीदास पर नाज़ है, वैसे तुलसी पर नाज़ किसे नहीं होना चाहिए, वही समाज उनके जीवन-काल मेें तुलसीदास का सबसे बड़ा शत्रु था। आज आदमी को खुलकर जूझने का शऊर तो कार्लमार्क्स ने ही दिया। कहा जाता है कि जो जवानी में कम्यूनिष्ट नहीं है, वह जवान ही नहीं है और जो बुढ़ापे में भी इसे पाले है, तो उसे क्या कहेंगे? ........ मूर्ख?? पूँजीवाद अपने साजि़स में काफी हद तक सफल होता दिख रहा है। नौजवान ‘पैकेज’ का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। जज़्बातों की ऐसी हत्या? अब आप भले ही मार्क्सवादी न हो, फिर यदि आप आदमी हैं तो विरोध का स्वर मुखर होना चाहिए।
प्रश्न - आज के लेखकों और साहित्य-प्रेमियों के लिए आपका कोई संदेश?
उत्तर - मेरी तो यही सलाह है कि आज के लेखक खुब पढ़ने की आदत डालें। शीघ्रातिशीघ्र छपने और मशहूर होने की बीमारी से बचें। साहित्य साधना है, व्यसन नहीं। न तो धंधा है।
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                                                                                                       - केशव मोहन पाण्डेय 

Sep 17, 2014

माँ की रूठी खाट
















अब 
जब भी 
मैं घर जाता हूँ 
मेरे आने पर भी 
बहुत दिनों के बाद
रूठा हुआ
माँ को नहीं पाता हूँ। 
सूनी 
बेजान
एकांत-सी
शांत
माँ की
रूठी खाट पाता हूँ
वैसे ही उलाहना देती
'इतने दिन बाद आये
भूल गए मुझे'
आदि उपालम्भ की चासनी टपकाती
ममता से
तर-बतर
माँ की खाट
जैसे कहना चाहती है
बहुत कुछ
कि
'देखो
टूट गया है एक पाया
मरम्मत कोई नहीं करवाता अब।
मैंने गौर से देखा
आज
माँ की खाट
खड़ी कर दी गई है
किसी अपरिचित के आने पर
घर के औरतों पर
एकाएक पड़ने वाली नज़र
बचाती है
आज
माँ के जैसे।
------------ - केशव मोहन पाण्डेय

मेरे गाँव की पगडंडी

















खेतों के बीच सरकती 
बेरोक चली जाती थी 
पगडंडी 
मेरे गाँव की। 
नहीं बंधन किसी बंधे का 
पार कर 
बेधड़क 
दौड़ पड़ती थी 
थोड़ी दूर तक
सबके साथ।
फिर पार करती थी
परती जमीनों को
खैरा के तथाकथित वनों को
गन्ने के खेतों को
धान की हरियाली को
मक्के की बाली को
रखवालों के विचारों को
दाँव में बैठे सियारों को
अरहर की सघनता को
बेल वाले खरबन्ना को
फसलों में फलते आस को
हर घर के विश्वास को
आम के बगीचे को भी
पार कर पगडंडी
पहुँच जाती थी
मेरे गाँव में
पीपल के छाँव में
और तब
पगडंडी
सैकड़ों पाँव का हो जाती थी
पूरे गाँव का जाती थी।
आज ढूँढते नहीं मिलती
समय के साथ की वह पगडंडी।
मेरी दिनचर्या भी
अपने गोरुओं को तलसता
शहर में भटकटा चरवाहा हो गई
वैसे ही
मेरे गाँव की पगडंडी
स्वाहा हो गई।
--------------- - केशव मोहन पाण्डेय

'मैं सुपर स्टार बनने के लिए काम ही नहीं करता' (साक्षात्कार)

    संगीत की साधना, क्रिकेट का फैशन, अभिनय का शौक या अब राजनीति का रंग, इन सब चरित्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले व्यक्तित्व का नाम है, मनोज तिवारी ‘मृदुल’। मनोज तिवारी ‘मृदुल’ का नाम आज अनायास ही सबके जबान पर नहीं हैं। यह उपलब्धि उन्होंने अपनी कर्मठता, संघर्ष और परिश्रम से प्राप्त किया है। आज अगर उनके लिए सबसे सफल और सबसे प्रिय गायक का विशेषण लगाया जाता है, तो यह सब ना ही केवल नियति की कृपा है, ना ही किसी गाॅड फादर की दया और ना ही ‘पेड पब्लिसिटी’ का करिश्मा। यह वास्तविकता की धरती पर प्रतिभा की संपन्नता के साथ-साथ परिश्रम की उर्वरा से तैयार किया गया फसल है। उनको केवल मिडिया ही मेगा स्टार या लोकप्रिय अभिनेता, गायक नहीं मानती, वे सबसे अधिक सुपर हिट फिल्में देने वाले भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता हैं। वे सबसे अधिक शो करने वाले गायक हैं तथा सामाजिक कार्यों में भी सबसे व्यस्त रहने वाले कलाकार हैं। यह भी सत्य है कि उनके कार्यक्रमों में श्रोताओं की सबसे अधिक संख्या पहुँचती है। श्रोता उन्हें सुनते है और सम्मान भी देते हैं। वे जब फिल्म के सुनहले पर्दे पर आते हैं तो दर्शक का दिल बाग-बाग हो जाता है। हाॅल के तालियों की गड़गड़ाहट से ‘काॅस्टिंग-म्यूजि़क’ म्यूट हो जाता है। जब मंच से किसी शो का आग़ाज करते हैं तो श्रोताओं तथा दर्शकों पर एक अलग ही दीवानापन छा जाता है। तब यह सब देखकर साफ हो जाता है कि अपनी कला के ही दम पर मनोज ने सबको अपना दीवाना बना लिया है। वे इस स्थिति से निराश जरूर हैं कि भोजपुरी फिल्में अपनों के बीच भी उपेक्षित बन गई हैं, परन्तु वे हार नहीं मानने वाले जीव लगते हैं। उन्हें इस बात का दुख है कि भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरिया समाज नजर नहीं आता है। आज की फिल्में समाज का दर्पण के बजाय कमाने का धंधा बनकर रह गई हैं। उनकी माने तो अच्छी सोच के निर्माता, निर्देशक, कहानीकार और संगीतकार भोजपुरी फिल्मों का जीर्णोद्धार कर सकते हैं। हमारी संस्कृति और महिलाओं को गलत ढंग से न प्रस्तुत किया जा सके, इसके लिए वे अलग सेंसर बोर्ड के हिमायती हैं। मनोज तिवारी को भोजपुरी गायन को सर्वप्रिय बनाने के साथ ही उन्हें भोजपुरी सिनेमा को पुनर्जीवित करने श्रेय जाता है। वे समृद्धि की बात करते हैं, भोजपुरी की चिंता करते हैं और सिनेमा के स्तर को सुधारने के प्रयास की बात करते हैं। वे बचपन में खो कर चंचल बच्चे की तरह मुखर हो जाते हैं, संघर्ष के दिनों को याद करके सफलता के दर्प में चमक जाते हैं तो भावनात्मक प्रश्नों के उत्तर देने से पहले सजल आँखों से उन भावात्मक लम्हों और अवसरों के प्रति नत नजर आते हैं।
     मनोज तिवारी ‘मृदुल’ आज भले ही लोकप्रियता, सफलता और एक आकर्षक व्यक्तित्व का नाम हो, परन्तु इन सबके पीछे है, उनका अथक परिश्रम, उनके अग्रज का स्नेह-सहयोग, उनके पिता का प्रथम सुर का संस्कार तथा माता का आशीर्वाद। मनोज तिवारी का स्वभाव उनके उपनाम की तरह ही ‘मृदुल’ है। उनके किसी भी भाव में कभी घमंड नहीं दिखा। वे अपने सहयोगी प्रवृत्ति के लिए आदरणीय माने जाते हैं।  कई बार उनके विषय में नकारात्मकता भरे समाचारों को उछाला गया, परन्तु वे तब भी अथक परिश्रम में लगे रहते हैं। अपने गीतों से लोकप्रियता की चोटी पर विराजमान मनोज तिवारी ने गायन और अभिनय, दोनों से सबको दीवाना बनाया है। वे निरंतर परिश्रम के बल पर अपनी प्रतिभा को निखारने तथा प्रस्तुत करने में लगे रहने वाले शख्सियत हैं।
मनोज तिवारी ‘मृदुल’ के प्रशंसकों का यह मानना है कि वे पहले लोक के गायक थे, आज लोकप्रिय गायक हो चुके हैं। उन्होंने कलाकारों में न कभी गुटबाजी को पसंद किया और ऐसे लोगों को न कभी कलाकार मानते हैं। उन्हें गंदी राजनीति से सर्वदा एलर्जी है तो वे भारतीय राजनीति के विषय में निरंतर चिंतन करते रहते हैं। उनका विरोध करने वाले भले कुछ भी कहें, परन्तु यह बात तो सभी जानते हैं कि लोकप्रियता ईष्र्या और प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है। आज भी मनोज तिवारी के गायकी का रंग सबसे चटक है। आज भी वे भोजपुरी सिनेमा में अभिनय के बाजीगर बने हैं और आज भी वे एक अपराजित योद्धा की तरह जीवन के सभी रंगों में रंगते नजर आते हैं। पिछले दिनों भोजपुरी के उसी लोकप्रिय सुपर स्टार मनोज तिवारी ‘मृदुल’ से भोजपुरी पंचायत की ओर से मैं उनके दिल्ली आवास पर मिला। उस दौरान मिस्टर मृदुल की ओर से बहुत ही सकारात्मक और सहयोगात्मक व्यवहार अपनाया गया। उन्होंने लगभग चार घंटे का अपना बहुमूल्य समय देकर हमारे हर प्रश्नों का सहज उत्तर देते हुए अपने जीवन के अनेक अनछूए पहलुओं से हमें अवगत कराया। प्रस्तुत है उनके जीवन के कुछ छूए तो कुछ अनछुए लम्हेः -

प्रश्न - कहा जाता है कि ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ तो आपको सबसे पहले यह कब आभास हुआ कि आप एक बहुत ही अच्छा गायक हो सकते हैं?
उत्तर - (पहले बड़ी कोमलता से मुस्कुराते हैं, फिर कुछ पल के लिए कहीं खो जाते हैं) आपने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया। बहुत ही रोचक प्रश्प किए आप। (मुस्कुराते हैं) मैं डालमिया नगर के आर. एन. सिंह नर्सरी स्कूल, रजवरवा बिघा में पढ़ता था। वहाँ शनिवार का दिन मनोज तिवारी का रहता था। जो छात्र कभी नहीं आता था, वह शनिवार  को मेरे गीतों को सुनने के लिए आता था। मुझे याद है कि हेडमास्टर साहब मेरे गीत को सुनकर बहुत प्यार देते थे। तब कभी-कभी मुझे लगता था कि हो न हो मैं कहीं गायक ना हो जाऊँ।
प्रश्न - उस समय आप विद्यालय में कौन-सा गीत गाते थे? 
उत्तर -मैं हल्दीघाटी का चेतक प्रसंग गाता था। लक्ष्मण शक्ति गाता था। (गुनगुनाते हैं) - मुँह को मोड़ी चले, हमको छोड़ी चले, हाय हाय रे लक्ष्मण भैया।’ शनिवार के गानों पर लोगों की जो प्रतिक्रिया होती थी, उससे मेरा उत्साह बढ़ता था। 
प्रश्न - क्या आपको अपनी पहली संगीत शिक्षा का कोई दृश्य याद है? क्या हमारे पाठकों को बताना चाहेंगे? 
उत्तर -जी, अवश्य। मेरे पिता जी श्री चंद्रदेव तिवारी जी शास्त्रीय संगीत के गायक थे। वे 1983 में हम लोगों को छोड़ गए थे, तब मैं दस साल का था। उन्होंने मुझे एक सरस्वती वंदना सिखाया है। या कुंदेंदुतुषार हार धवला . . . (मगन होकर सुर लगाते हैं और भावुक हो जाते हैं।) मुझे मेरे पिताजी ने इतना ही सिखाया और पता नहीं कंप्यूटर का कौन सा चीप दिमाग में पड़ गया कि मैं कभी नहीं भूलता हूँ। जब गाता हूँ, तो वैसे ही गाता हूँ। सुर भी वहीं है। जबकि बाकी शास्त्रीय संगीत की साधना मैंने उतनी नहीं की। 
प्रश्न - तो क्या यह कहा जाय कि शनिवार के कार्यक्रम और आपके पिता जी की शिक्षा ने ही आज इस मुकाम पर स्थापित किया है?  
उत्तर -जी हाँ। बहुत हद तक यह भी कहा जा सकता है। मुझे भी लगा कि पिता जी का सीखाना और शनिवार के कार्यक्रम गायक मनोज तिवारी को तैयार कर रहे थे लेकिन मैं प्रयास नहीं करता था। प्रयास तो मेरा असफलता के बाद शुरू हुआ। 
प्रश्न - आप किस तरह की असफलता की बात कर रहे हैं? 
उत्तर -जब मैं 1992 में ग्रेजुएट हुआ, नौकरी नहीं लगती थी। हम लोगों ने आरक्षण का दौर झेला है। मंडल-कमंडल सुरसा की तरह मुँह बाए खड़ा था, तो मरता क्या न करता। हम अवसर खोज रहे थे, क्योंकि हमलोग जैक आॅफ आॅल मास्टर आॅफ नन थे। सब कुछ थोड़ा-थोड़ा जानते थे, मास्टरी किसी में नहीं थी। इसके बीच ही मेरी सफलता में इंदिरा जी की हत्या का बहुत बड़ा योगदान है। मुझे अच्छी तरह याद है 31 अक्टूबर 1984। मैं रेडियो पर सुना था कि इंदिरा जी को मार दिया गया। मुझे लगता है कि मैं ही क्या, उस समय तो देश का हर व्यक्ति रोया होगा।  उनकी हत्या के बाद जीवन में पहली बार मैंने रचना की। रेडियो से सुनकर तथा अखबार में पढ़कर जो पता चला, मैंने उसपर एक गीत बनाया था। -
‘निकली अपने घरवा से भारत के महरनीया,
इंदिरा गांधी महान, एही देशवा के शान
चली दफ्तर को ऽऽऽ।
बोली बेटा क्या कर रहे हो, हाथ लिए हथियार हो,
एतना ही कह वह भारत ज्योति ज्योंहि किया उन्हें पार हो।
दन-दन गोलिया बदन चीर दिहले।।
(गीत गाते-गाते भावुक हो जाते हैं। आँखें भर जाती हैं, गला रूद्ध जाता है। कुछ पल रूकते हैं। उसी दौरान मीठे फलों का प्लेट आता है। कुछ क्षण का अंतराल, फिर साक्षात्कार प्रारंभ।) 
प्रश्न - आपके उस गीत का आपके जीवन में क्या महत्त्व रहा?
उत्तर -उसके बाद जितना शादी-विवाह, जनवासा, जनेउ होता था, मैं इस गाना को गाकर हीरो हो जाता था। जब मेरे महीने का खर्चा चार सौ रूपया होता था, इस गाना को गाकर मुझे दो-ढाई हजार रूपया ईनाम मिल जाता था। उस गाने ने मुझे विश्वास दिलाया कि मनोज तुम लिख सकते हो। तुम्हारे लिखने पर लोग रो सकते हैं। किसी-किसी मुद्दे पर हँस भी सकते हैं। मेरे लिए वह घटना बहुत बड़ी थी। आज भी जब मैं गाता हूँ तो पूरा दृश्य याद आ जाता है। उस घटना ने कवि मनोज और गायक मनोज को विश्वास दिलाया कि कुछ न हो तो इसकी कोशिश करना।
प्रश्न - क्या आप अपने संर्घष के दिनों को अपने प्रशंसकों से शेयर करना चाहेंगे? 
उत्तर - मैं 1992 से नौकरी खोज रहा था। मैंने बीपी.एड., एमपी.एड. किया। बी.एच.यू. से टीचर की पढ़ाई पढ़ी। फिर भी नौकरी नहीं मिली। मैंने दरोगा की परीक्षा दी। दानापुर कैंट में फौज के लिए दौड़ा हूँ। उसमें भी नहीं सफलता मिली। वैसे 1996 मेरे लिए एक टर्निंग प्वाइंट था। उस वर्ष में यूपी-बिहार दोनों जगह से दरोगा की परीक्षा पास कर गया। उसी साल बी.एच.यू. क्रिकेट टीम का कैप्टन रहने के कारण स्पोस्र्ट कोटे में ओएनजीसी में मेरी नौकरी लग गई। और जो मैं 1992 से गाने की कोशिश कर रहा था, 1996 में ही टी-सीरीज से मेरा पहला अलबम आया। उसी साल मेरी मुलाकात रानी से हुई।
प्रश्न - क्या टी-सीरीज की यात्रा औचक ही थी? या उसके लिए भी संघर्ष करना पड़ा? फिर सफलता कैसे मिली?
उत्तर - टी-सीरीज चार साल गया हूँ सर, चार साल। आज लोग चार महिना जाने को तैयार नहीं हैं। उस चार साल में टी-सीरीज के अधिकारी मुझे देखकर छुप जाते थे। एक बार मुझे अपने मित्र के परिवार के साथ वैष्णो देवी जाना पड़ा। उसके बीस दिन पहले का कलकत्ता में रिकार्ड किया गया एक माता का अलबम था मेरे पास। वह कैसेट मेरे बैग में था, जो सबसे पहले वैष्णो देवी गया। जब मैं वहाँ से लौटकर दिल्ली आया, तो टी-सीरीज चला गया। वहाँ तो आना-जाना लगा ही था। उस दिन अधिकारी मिल गए। मैं बोला कि भैया एक नया अलबम लाया हूँ। थोड़ा सुन लीजिए। जैसे ही हम अंदर जा रहे थे कि सामने ही गुलशन कुमार जी मिल गए। मैं उनका पैर छूकर प्रणाम किया। पता नहीं उनके मन में क्या आया कि बोले ‘बेटा कहाँ से आए हो?’ मेरे बोलने से पहले ही वे अधिकारी बोले कि मनोज नाम है। बीएचयू में पढ़ता है और गाना गाने के लिए आते रहता है। तो मैं बोल दिया कि सर एक कैसेट लाया हूँ सुनाने के लिए। बोले - लगाओ-लगाओ। (मनोज तिवारी प्रसन्नता में भींग कर जैसे भाव-विभोर हो जाते हैं।)
    यह सब अकस्मात हो रहा था। बगल में एक कमरा था, वहाँ कैसेट लगा दिया गया। उस कमरे में तब के गायक भरत शर्मा व्यास, मुन्ना सिंह, सतेंद्र पाण्डेय आदि अनेक लोग बैठे थे और गुलशन जी खड़े होकर सुन रहे थे। कैसेट का पहला गाना था, निमिया के डाढ़ मैया . . । पूरा गाना नौ मिनट पच्चीस सेकेंड का है। पता नहीं उसमें क्या था कि सुनते समय न गुलशन जी हिले न दीप मुहम्मदाबादी और न बाकी सुनने वाले। जब गाना खत्म हुआ तब जैसे सबको होश आया। मैं भी वहाँ के माहौल से अचंभित था। मैं सबका चेहरा देख रहा था। जैसे ही गाना बंद हुआ, गुलशन जी ने कहा - अरे, यह तो बहुत अच्छा है। . . . इस प्रकार के संघर्षों के बाद सात मार्च 1996 को मेरा कैसेट ‘मइया के महिमा’ निकला। उसके बाद से तो मेरी दुनिया ही बदल गई।
प्रश्न - सफलता-असफलता के बीच संर्घष करते हुए मनोज तिवारी के नाम के आगे आज जब सुपर स्टार लगता है तो कैसा अनुभव होता है?
उत्तर - सुपर स्टार जब शुरू में लगता था तो अच्छा लगता था, लेकिन आज तो आम हो गया है। सुपर स्टार कोई भी लगा लेता है। इसलिए बहुत रोमांचित नहीं करता है। सच बताऊँ तो मैं सुपर स्टार बनने के लिए काम ही नहीं करता। मैं सुपर भोजपुरीया स्टार बनने के लिए काम करता हूँ। मेरी कोशिश है कि जो हो, समृद्ध हो। मेरे बाद भी जो लोग उस रास्ते पर चलें, उनको फायदा हो। अगर मैंने पचास लाख लेकर काम किया है तो आने वाली पीढ़ी को भी पचास, साठ, अस्सी लाख मिले। जीवन में मेरी सिर्फ यहीं कोशिश है और मैं उसमें सफल हूँ। मैं जिन-जिन रास्तों पर गया हूँ, अपने पिछे आने वाले भाइयों-बहनों के लिए करोड़पति बनने का रास्ता खोल दिया हूँ।
प्रश्न - क्या कारण है कि आज कल भोजपुरी फिल्म में स्टार कोई है ही नहीं, सभी सुपर स्टार हैं?
उत्तर - उसे हम लोगों को निगेटिव नहीं लेना चाहिए। देखिए, हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि मेरे साथ सुपर स्टार लगे। अगर कोई व्यक्ति सिनेमा का हीरो बन सकता है तो वह अपने से तो सुपर स्टार लिख ही सकता है। निर्भर करता है कि पत्रकार भी लिखते हैं क्या? आप लिखेंगे कि नहीं, यह महत्त्वपूर्ण है। यह तो हमारी मिडिया को चुनौती है कि आप पहचानिए - कौन सुपर स्टार है, कौन मेगा स्टार है, कौन महानायक है? भोजपुरी क्षेत्र में इन शब्दों का प्रयोग मिडिया के द्वारा सोच-समझ कर होना चाहिए। 
प्रश्न - इतना ही नहीं, सभी भोजपुरी फिल्मों के साथ सुपर हिट लिख दिया जाता है। कोई फिल्म फ्लाॅप ही नहीं होती। इस पर आप क्या कहेंगे?
उत्तर - यह भोजपुरी से जुड़ी मिडिया के लिए बहुत बड़ा प्रश्न है कि आप पी. आर ओ. के समाचार को अपना काॅलम क्यों बनाते हैं? पी.आर.ओ. तो पैसा लिया है, वह बोलेगा ही। अब यह तो आपलोगों की जिम्मेदारी है कि अपने अखबार, अपनी पत्रिका में किसके लिए कौन-सा शब्द प्रयोग किया गया है। इसमें कलाकार का दोष नहीं है। अपनी फिल्म के लिए तो वह सुपर हिट लिखवाएगा ही, उसकी सच्चाई का पर्दाफाश आप लोग करें। ( हँसते हैं)
प्रश्न - गायकी से सीधे फिल्मों में आना, उस बदलाव को आप कैसे देखते हैं?
उत्तर - जब 2003 में सुधाकर पाण्डेय जी तथा राइटर-डायरेक्टर राजेश सिन्हा जी की फिल्म ‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’ का आॅफर आया तो उसके रेट को सुनकर मैं तैयार ही नहीं हुआ। मुझे फिल्म नहीं करनी थी, क्योंकि उस समय एक दिन के लिए मैं एक लाख रूपया लेता था। उन लोगों ने कहा कि पंद्रह दिन लगेगा। मैं बोला कि तब कम से कम पंद्रह लाख रूपया चाहिए। वे लोग तीन-चार माह तक लगे रहे, फिर मैंने फिल्म की। स्क्रीप्ट पढ़ा तो मन बन गया। कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी।  उसके बात तो मेरी क्या, उससे जुड़े सबकी किस्मत खुल गई। वैसे बाद में पाण्डेय जी ने मुझे बहुत उपहार भी दिया। वह फिल्म 11 शहर में 50 सप्ताह तक उतरी ही नहीं। उसकी लागत 29 लाख थी जिसने 34 करोड़ की कमाई की। बहरहाल, उससे भोजपुरी फिल्मों का एक नया दौर प्रारंभ हुआ। 
प्रश्न - आप कैसे कह सकते हैं कि सबकी किस्मत खुल गई?
उत्तर - अगर केवल अपनी ही बात बताऊँ तो आप समझ जाएँगे। मैं दूसरी फिल्म दरोगा बाबू आई के लिए पच्चीस लाख लिया, बाद में तो 80-80 लाख रूपया लेकर काम किया हूँ। हालाँकि उसी दौर में मुझसे गलती भी हुईं। जब मैं 80 लाख रूपया लेता था तो पूरे फिल्म का बजट ही सवा करोड़ होता था। तब लोग फिल्म नहीं बना रहे थे, केवल मनोज तिवारी का नाम छाप कर पैसा कमा रहे थे। उसका नुकसान तो हुआ है, फिल्मों के व्यवसाय पर असर पड़ा। 


प्रश्न - सन् 1963 में विश्वनाथ प्रसाद शाहबादी निर्मित पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ का प्रदर्शन हुआ था। उसके गाने आज भी कर्णप्रिय और लोकप्रिय हैं। उन्हें कहीं भी, किसी के साथ भी सुना जा सकता है। क्या कारण है कि आज उस तरह के यादगार गाने नहीं बन रहे हैं? 
उत्तर - 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो’ के गाने बहुत कर्णप्रिय थे, उस समय रफी साहब गाए हैं, लता दीदी गायीं हैं। आज क्या बड़े लोग भोजपुरी में गाना या एक्टिंग करना चाहते हैं? इसीलिए तो भोजपुरी फिल्मों का कलाकार होते हुए भी पिछले दो वर्षों में मेरी निराशा हुई है। निराशा इसलिए भी कि लोगों ने मेरे ऊपर ही अटैक किया।
प्रश्न - आप अक्सर समृद्धि की बात करते हैं। क्या हमारे पाठकों को अपनी समृद्धि के विषय में बताना चाहेंगे?
उत्तर - मेरी कोशिश हमेशा यह रहती है कि समृद्धि देखूँ। समृद्धि केवल मैं नहीं देखूँ, जिस रास्ते पर चलूँ, उस पर समृद्धि बरसती रहे। मैं यह नहीं चाहता कि केवल अपने लिए ही बहुत सारा सोहरत बटोर लूँ और बाकी के लिए रास्ता बंद कर दूँ। छत पर चढ़कर पैर मारकर सीढ़ी नहीं उतारना चाहता कि दूसरा कोई न चढ़ पाए। मैं जब पहली बार 1996 में टी-सीरीज में गाना गाने गया तो उस समय के सुपर स्टार भरत शर्मा, मुन्ना सिंह, शारदा सिंहा और बालेश्वर यादव जी थे। मेरे पहले अलबम के लिए बारह हजार मिला और पता चला कि यही सबका रेट है। दूसरे अलबम के लिए मुझे 25000 मिला। उसके बाद जैसे जैसे मेरा रेट बढ़ता गया, वैसे वैसे अन्य लोगों का भी रेट बढ़ता गया था। यह इसलिए बता रहा हूँ कि मैं प्रारंभ से यही सोचता था कि मेरा पेमेंट बढ़ेगा तो सबका बढ़ेगा। बाद में मैं विडियो का भी पैसा लेना प्रारंभ किया और उसके बाद लोगों को भी मिलने लगा। आज की तारीख से तुलना करें तो हम लोग 2006 में एक अलबम का छह लाख लेते थे, जबकि आज पूरी फिल्म में गाने के लिए दो लाख भी नहीं मिलता है। अब यह आपके शोध का विषय है कि हम कहाँ हैं? (कुछ पल शांत रहते हैं। सबके लिए चाय आता है, वे स्वयं सबको प्यालियाँ आॅफर करते हैं। एक छोटी चुस्की, फिर बोलना प्रारंभ।)
इतिहास गवाह है कि मेरे बाद आने वाले सभी हिट हीरो, भले क्वालीटी जो भी देता हो, वह भी 40 लाख के क्लब में शामिल हो गया हैं। जिनको चार हजार की नौकरी मिलनी मुश्किल थी, वह चालीस लाख की कमाई करने लगा है। रवि भाई (अभिनेता रवि किशन) तो कल भी फिल्म करते थे, आज भी करते हैं, कल भी करेंगे, परन्तु जब वे भी अकेले बैठकर सोचते होंगे तो याद आता होगा कि अगर उन्हें भी पच्चीस लाख मिला तो उसके पिछे मनोज तिवारी की सोच क्या थी? जहाँ हम लोग स्टेज पर पाँच हजार में गाना गाते थे, वहाँ आज 10 लाख में भी गाना गाते हैं। आज के समय में पूरे देश में जहाँ कोई बड़ा कार्यक्रम हो रहा होगा वहा जरूर बुलाया जाता हूँ। बाकी लोगों की बात तो नहीं जानता, पर मैं अपने रास्ते पर चल कर आने वालों के लिए रास्ता बनाता रहता हूँ। समृद्धि पर यही मेरा सिद्धांत है।
प्रश्न - आप अभी कुछ निराशा और अटैक की बात कर रहे थे। क्या इन पहेलियों को कुछ स्पष्ट करेंगे?
उत्तर - मेरी निराशा यह है कि जब इस दौर में हम भोजपुरी के लिए ऐसे काम कर रहे हैं तो कुछ लोगों ने हमें अपमानित करने के लिए भी काम किया है। जैसे भोजपुरी फिल्म अवार्ड्स शुरू किया गया। वह सिर्फ मुझे अपमानित करने के लिए किया गया। आप या कोई पता कर ले लिए मैंने किसी का क्या बिगाड़ा है या बिगाड़ने की क्या नियत रखा है? मैं तो ऐसे आजोजन की सराहना करते हूँ, लेकिन निर्णय पर प्रश्न-चिह्न है। हो सकता है कि कभी कुछ लोग अपने साथ बैठाना चाहें होंगे, लेकिन मैं समय नहीं दे पाया होऊँगा। वैसे मेरी नियत कभी गलत नहीं रही है। मैं हमेशा भोजपुरी को समृद्ध करना ही चाहता रहा। इस चार साल के अंतराल में भोजपुरी फिल्म फिर से रसातल में चली गई। अब आप स्वयं से ही प्रश्न कीजिए कि आपने क्या दिया भोजपुरी को? 
(कुछ पल गंभीर हो जाते हैं, जैसे हृदय को कभी घातक आघात पहुँचा हो, फिर चाय का मग नीचे रखते हुए वार्ता शुरू करते हैं।)
   मैं आपसे बेबाक बात कर रहा हूँ। मैं तो चाहता भी नहीं हूँ कि अभिनेता के रूप में जाना जाऊँ। मैं गायक हूँ, गायक ही रहना चाहता हूँ। लेकिन अब ईश्वर ने दे दिया और रिकार्ड के आधार पर आपको तो मानना ही पड़ेगा न कि मनोज तिवारी एक्टर भी है। मगर मुझ पर जो अटैक किया गया, उससे पूरी इंडस्ट्री को नुकसान हुआ। हमें तो एक-दूसरे की सराहना करनी चाहिए। इसके बाद भी मुझे ताकत मिलती रहती है कि देश की कई संस्थाएँ, कई लोग और मिडिया भी बहुत प्यार देती है। आज भी मैं यही चाहता हूँ कि लोगों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। अगर मकान के नीव को गिराओंगे तो कहाँ का रह जाओगे? मकान के नीव को इज्जत दो, मकान वैसे ही चमकता रहेगा। 
प्रश्न - आपके व्यक्तित्व में एक कवि भी छिपा रहता है। साहित्य के प्रति आपकी कैसी रूचि रही है? 
उत्तर - मैं तो साहित्कारों के सानिध्य में भी पला बढ़ा हूँ। कलकता का भारतीय भाषा परिषद, विष्णु कांत शास्त्री, नरेश मेहता, बुद्धिनाथ मिश्र, कृष्ण बिहारी मिश्र, भोलानाथ गहमरी जी, हरिराम द्विवेदी, चंद्रशेखर मिश्र आदि लोगों के सानिध्य में मैंने होश संभाला है। मैं बनारस में लोक रस अवार्ड भी शुरू किया था। मैं आज भी साहित्कारों को दिल से प्रणाम करता हूँ और उनका स्नेह पाने की इच्छा रखता हूँ। मेरे लिए साहित्य व्यक्ति और समाज का आइना है। जैसे आपकी पुस्तक ‘कठकरेज’। मुझे ‘कठकरेज’ शब्द के चयन से ही पता चल जाता है कि यह आदमी कैसा होगा। आज की व्यस्तता में मैं साहित्यिक कार्यक्रमों में नहीं जाता हूँ लेकिन साहित्कारों के प्रति आदर है। 
प्रश्न - आपने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि आज तक आपको एक भी फिल्म का स्क्रिप्ट नहीं मिला।  पूछने पर लेखक-निर्देशक कह देते हैं कि भैया, अपनी ओर से कुछ भी बोल दीजिएगा। क्या आपको नहीं लगता कि अगर स्क्रीप्ट होता तो अपनी फिल्मों का कुछ और ही रूप होता?
उत्तर - अरे सर, यह समस्या आज भी है। बिना स्क्रीप्ट की फिल्में हो रही हैं। यह तो सचमुच बहुत ही दुखद है।
प्रश्न - भोजपुरी भाषा के साथ भोजपुरी सिनेमा के लिए आप हमेशा चिंतित नजर आते हैं। तो अपनी ओर से आप क्या प्रयास कर रहे हैं?
उत्तर - अब तक तो प्रयास करता था कि लोग स्टडी करके अच्छी कहानी लिखें और जो हम दिखा रहे हैं तो वैसा भोजपुरी संस्कृति में होता भी है कि नहीं, इसका ध्यान रखा जाए। मुझे अब तक निराशा मिली पर अब 2014 में मैं अभिनेता के साथ-साथ निर्माता के रूप में भी आ रहा हूँ। अब मैं फिल्म बनाऊँगा भी और अभिनय भी करूँगा। मैंने एक प्रोडक्शन कंपनी भी बना लिया है जिसका नाम ‘लिट्टी-चोखा इंटरनेशनल’ है। 2014 के अगस्त में पहली फिल्म लेकर आ जाऊँगा। उन समस्याओं का सारा निदान यही हैं कि दूसरों से कहने के बजाय स्वयं ही करें। पिछले दो साल में मैं मुश्किल से तीन या चार फिल्म किया हूँ। वह मेरे चिंता एवं निराशा के कारण हुआ। मन नहीं करता था, क्योंकि एक गायक के रूप में मैं अपने आप के अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर पा रहा हूँ। पूरी दुनिया से गाने के लिए बुलावा आता है। मैं अपने कलाकारों से यही कहूँगा कि बड़े होने का दंभ मत पालो, मेहनत से बड़ा बनकर सिद्ध करो।
प्रश्न - भोजपुरी के गीतों पर अश्लीलता का आरोप लगा रहता है। इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर - ऐसा नहीं है कि भोजपुरी में केवल खराब गाने ही बनते हैं। अभी हम लोगों ने ‘इंसाफ’ फिल्म किया था, जिसका एक गाना था, - 
‘अरे, बाबुजी के नेह के कैसे भुलाईं,
नाहीं बानी बाकीर हमरा बहुते याद आईं।’
   आज भी भोजपुरी में बहुत अच्छे-अच्छे गाने बनते हैं, लेकिन कुछ लोग फूहड़ गानों को ही फोकस करते हैं। इसके शत्रु तो यह कहते हैं कि भोजपुरी में अश्लील चीजें पसंद की जाती हैं। मैं उनसे पूछना चाहूँगा कि तो भैया चालीस करोड़ का व्यवसाय पचास लाख पर कैसे आ गया? 
प्रश्न - साहित्य, कला, संस्कृति, सब कुछ प्राचीन समय से ही समृद्ध होने के बाद भी भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा नहीं मिला, इसके लिए आप किसे दोषी मानेंगे?
उत्तर - हमारे जन प्रतिनिधियों को। भोजपुरी क्षेत्र के जो प्रतिनिधि हमारे संसद में बैठे हैं, वे ही इसके लिए पूर्ण दोषी हैं। उन्होंने अपने और अपनी पार्टी के भलाई के अतिरिक्त भोजपुरी के लिए कुछ भी नहीं भला सोचा। आप देखते ही है कि तमाम सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाएँ कार्यक्रम कराती रहती हैं, वहीं नेता आकर भाषण में आश्वासन देते हैं, परन्तु कुछ होता नहीं है। हमारे जन प्रतिनिधि जिस दिन सोच लें, एक माह में हो जाएगा।
प्रश्न - आपके विचार से इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर - सभी लोग एकजुट होकर दृढ़ इच्छाशक्ति से एकता दिखाएँ तो एक माह में भोजपुरी को संवैधानिक दर्जा मिल जाएगा। हमारे राजनेताओं को भी हमारी बात माननी पड़ेगी।
प्रश्न - आप भी चुनाव लड़ चुके हैं। आज के राजनैतिक माहौल में आप स्वयं को कहाँ पाते हैं?
उत्तर - विगत कुछ दिनों से मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आज के राजनैतिक माहौल में मैं फिट नहीं बैठता हूँ। मैं भले ही किसी पार्टी में रहूँ, लेकिन राष्ट्रीय आपदा आने पर पार्टी के नीतियों के विरूद्ध भी मेरा वक्तव्य हो सकता है। आज के भारतीय राजनीति में यह स्वतंत्रता छीन गई है। आप बहुत विचारवान व्यक्ति हैं, लेकिन आपकी द्वारा अगर गलत रास्ता पकड़ लिया गया, तुष्टीकरण की नीति अपना ली गई, तो आपको भी साथ रहना है। इस स्थिति में लगता है कि मुझे निकाल दिया जाएगा।
प्रश्न - तो क्या अब यह माना जाय कि आप आगे चुनाव नहीं लड़ेंगे? 
उत्तर - भारतीय राजनीति में अपने विचार की स्वतंत्रता भले ही छीन गई है लेकिन फिर भी यह नहीं कह रहा हूँ कि मैं चुनाव नहीं लड़ सकता। बहुत दृढ़ इच्छा-शक्ति नहीं है, लेकिन अगर परिस्थितियाँ बनीं तो मैं कायर की तरह पीठ दिखाकर नहीं भागूँगा। 
प्रश्न - आप गायन, अभिनय के साथ-साथ राजनीति से भी जुड़े हैं। आपके गायन का दौर जब प्रारंभ हुआ तो भोजपुरी गीतों को एक नया स्वरूप मिला। आप जब फिल्मों में आए तो ऐसा कहा जाता है कि भोजपुरी फिल्मों का पुनर्जन्म हुआ, तो क्या हमारे पाठक यह माने कि अब आप भारतीय राजनीति को भी अपने विचारों से प्रभावित करेंगे?  
उत्तर - (पहले मुक्त केठ से हँसते हैं) मैं इतना ताकतवर तो नहीं हूँ कि भारतीय राजनीति प्रभावित हो जाए। यह लोहिया का देश है, जय प्रकाश नारायण का देश है, गांधी का देश है। यह राजीव गांधी के वैज्ञानिक सोच का देश है। अटल बिहारी वाजपेयी के संसाधनों के विकास और उपयोग का देश है। मेरे पास तो कोई ऐसा अद्भूत सिद्धान्त नहीं है कि मैं भारतीय राजनीति को प्रभावित करूँ। 
प्रश्न - आप तो चुनाव भी लड़ चुके हैं। तो फिर राजनीति के प्रति लगाव क्यों? 
उत्तर - चुनाव लड़ने के पिछे मेरा नजरिया यही है कि मैं लोगों को संदेश देना चाहता हूँ कि राजनीति को अछूत मत समझो। अगर कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार जैसे अच्छे सोच के लोग ही अछूत समझने लगेंगे तो राजनीति में रहेगा कौन? इस प्रकार तो हम बूरे लोगों को खुलेआम मौका दे रहे हैं न। जब वहीं लोग राष्ट्रीय निर्माण की नीति बनाएँगे तो स्वयं ही सोच लिजिए कि देश का क्या होगा।
प्रश्न - अगले चुनाव में आप कहाँ से दिल्ली पहुँचना चाहेंगे? 
उत्तर - (पहले मुस्कुराते हैं, टालने का प्रयास करते हैं, फिर हँसते हुए कहते है) देखिए, बक्सर और द्वारका (दिल्ली), दोनों में मेरा घर है। यहाँ से चुनाव लड़ने पर कम से कम मैं बाहरी तो नहीं कहलाऊँगा।़
प्रश्न - आपके फिल्मी जीवन से आपका व्यक्तिगत जीवन भी बहुत अधिक प्रभावित रहा है। आपकी कमेस्ट्री अक्सर कई अभिनेत्रियों के साथ चर्चा में रहा है। बहुत हद तक इसी के कारण वर्तमान में तलाकशुदा भी हैं। आप इन बातों को कैसे लेते हैं? 
उत्तर - देखिए फिल्म के पर्दे पर मेरी कमेस्ट्री रानी चटर्जी और श्वेता तिवारी से बहुत अच्छी रही। अगर उसे अन्य अर्थ में न लिया जाय तो ये दोनों मेरे अच्छे दोस्त हैं। और जहाँ तक मेरे तलाक शुदा स्थिति की बात है, मैं अभी भी अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे लगता ही नहीं है कि हमारा तलाक हो गया है। मेरे लिए मेरी पत्नी आज भी वही हैं। भले वह मुझसे अलग है लेकिन दुनिया क्या, भगवान भी नहीं अलग कर सकता। हमारी बेटी मेरा जीवन है। कष्ट है, मगर आशा है कि वह वापस आ जाए। 
प्रश्न - आपकी पसंदीदा फिल्में कौन-सी हैं?
उत्तर - 2003 के पहले मुझे राजकपूर साहब की फिल्में लुभाती रहीं और अमिताभ बच्चन साहब की फिल्मों का मैं दीवाना रहा हूँ। अब भोजपुरी फिल्मों में कहूँ तो ‘ससुरा बड़ा पइसा वाला’, ‘देहाती बाबू’, ‘बंधन टूटे ना’ और ‘कब अइबू अँगनवा हमार’ ये चार फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं।
प्रश्न - आपकी आने वाली फिल्में और अलबम?
उत्तर - ‘सबकी दुलारी मोरी माई महरनीया’ मेरा नया अलबम आया है।  इस अलबम में मैंने गंगा के लिए बहुत ही कारूणिक गाना गाया है। ‘मेरी एक बूढ़ी माँ है, उसका उससे नाता है। मेरी माँ बताती है, गंगा मेरी माता है।’ नए साल पर मेरा बाल-गीतों का कैसेट ‘ओका-बोका’ रहा है। जहाँ तक फिल्मों की बात है, तत्काल में राजकुमार आर पाण्डेय जी की फिल्म ‘देवरा भइल दीवाना’ कर रहा हूँ। ‘परम वीर परशुराम’ पूरी होने की स्थिति में है। एक फिल्म ‘यादव पान भंडार’ अभी-अभी रिलीज हुई है। और इसके बाद ‘हमीद’।
प्रश्न - ‘भोजपुरी पंचायत’ के पाठकों से क्या कहना चाहेंगे? 
उत्तर - ‘भोजपुरी पंचायत’ के पाठक नियमित हों। वार्षिक सदस्य बनकर इसको मंगवाएँ। भोजपुरी समाज, भोजपुरी सिनेमा, भोजपुरी मनोरंजन, भोजपुरी साहित्य के लिए पत्रिकाओं की बड़ी कमी है, उसे पूरा करने में ‘भोजपुरी पंचायत’ का सहयोग करें। 
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                                                                                                - केशव मोहन पाण्डेय  (सितंबर, 2013)