Mar 1, 2013

किस्तों पर गुज़ारा (कविता)

चित्र : गूगल
   रोटी के लिए ही नहीं, 
केवल कपड़े के लिए ही नहीं 
और ना ही सिर्फ मकान के लिए,
हम भटकते हैं आज 
जीवन का मोह छोड़ कर 
आज के 
जीने के साज-ओ-समान के लिए।
क़िस्त-दर-क़िस्त 
दौलत की चाह में 
कई बार तो 
अस्मत, सम्मान 
और आदमी होने के प्रति भी 
बेपरवाह हो जाते,
गाँव से आकर, 
अपनत्व भुलाकर, 
शहरी होने का भ्रम पाले 
जीवन से ही 
गुमराह हो जाते हैं।
खून के रिश्तों से दूर होकर 
बड़ी सिद्दत से 
निभाने लगते हैं -
व्यावसायिक रिश्तों को, 
होम लोन,
क्रेडिट कार्ड्स, 
और विलासिता के सामानों का, 
उलझे रहते हैं 
भरने में किस्तों को।
वहाँ तो एक उधार को 
कई बार टाल दिया जाता था,
और जो पुनः जाकर 
उधार ही खाया जाता था,
वहीं मैं!
आज नज़दीक आते ही 
ई. एम. आई. की तारीख, 
धरती-आसमान एक कर देता हूँ 
बैंक-अकाउंट मैनेज करने के लिए,
वहाँ एक रिश्ते से 
सौ झूठ बोला जाता था,
यहाँ सौ व्यावसाय में भी 
एक वे ही याद आते हैं 
क़िस्त भरने के लिए। 
अब शाम 
पहाड़-सी भारी होकर सोती है 
सुबह 
उलझी किस्तों में जगती है,
प्यारे नाते सूखे नल, 
पानी टैंक से मँगाकर 
बीवी 
अरमानों के कपड़े डूबोती है।
फिर भी जीवन प्यारा है। 
वहाँ 
रिश्तों पर असंभव था,
यहाँ 
किस्तों पर ही गुज़ारा है।
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                   - केशव मोहन पाण्डेय 

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