Feb 6, 2013





ग़ज़ल 

रोटी बनता हूँ मैं चादर बनाता हूँ।
तेरे इश्क के दौलत से मुक़द्दर बनाता हूँ।।

मेहनत है मज़हब मेरा मेहनत ईमान है,
तिनका-तिनका जोड़ के घर बनाता हूँ।।

जाने से डर जाते हैं अक्सर जहाँ तक लोग,
चलकर अकेला मैं नया डगर बनाता हूँ।।

रिश्तों पर लगा पैबंद गँवारा नहीं मुझको,
मुहब्बत बटोरकर अपना ज़र बनाता हूँ।।

मुफ़लिसी में भी हौसला न कम हुआ,
पत्थर को काटकर नया नहर बनाता हूँ।।

चिलचिलाती धूप से झुलसी सी ज़िन्दगी,
हर दिल में ज़ज्बा-ए-हुनर बनाता हूँ।।   

आ जाएँ सभी मेरे सहन में एक साथ,
घर नहीं तो क्या, मैं ज़िगर बनाता हूँ।।
                                            - केशव मोहन पाण्डेय 

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