Dec 20, 2021

दो दोहे


अंतर में होता  रहा, अनुपल शाश्वत युद्ध।

एक ओर सिद्धार्थ मन, दूजे गौतम बुद्ध।।


कैसे  करता मैं रहूँ,  सदा एक सा काम। 

दोनों बैठे मन-सदन, दशकंधर औ राम।।


                      - केशव मोहन पाण्डेय

दँवरी


ई दुनिया
दँवरी ह
उमकल दरिआव के
फेंटा लेत
भँवरी ह।
ई दुनिया
मथेले विचार से
देखाव के शिक्षा से
बनाव के
संस्कार से।
ई दुनिया में
जीवन मेह ह
कर्तव्य के बैल बनिके
रौंदे के बा
मन के भावना के,
अनाज भले भुलावा के निकले
तब का
मिलिए जाला
लिप्सा के पुआल
जीनगी में
बिछवाना के।
त कबो
बहकल मनवा के बैला
तुरा दे पगहा
त चिहुँकी मत ,
कहाँ जाई
दँवरी में नधाइल
बैल ?
जीवन
बनल रहे
सहज आ सरल
खाली धोअत रहीं
मन के मैल।
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- केशव मोहन पाण्डेय

.यूनिवर्सल पोएट

 बातें बनाना सीखने लगा हूँ

अब मैं भी कविता लिखने लगा हूँ
अब तो रोज
कवि सम्मेलनों में भी जाता हूँ
भले गर्दभ स्वर में ही सही
मैं अतुकांत कविता भी गाता हूँ,
इतना ही नहीं
बात कहता हूँ सौ फीसदी सही
भले सपने में ही -
चांद, मंगल, शुक्र, बृहस्पति के दरबार में भी
अब रोज का आना जाना है
कवि धर्म भी तो निभाना है,
अब तो सूरज के घर हो रहे
कवि सम्मेलन में जाना है
इधर उधर से मार कर जो कविता जोड़ा हूँ
उसे शीतल राग में सुनाकर
वहाँ भी बर्फ जमाना है
मेरी इस पक्ति-ग्रहण वृत्ति से
मेरा जीवन वृत्त भी इतना बड़ा हो गया है
कि विशालकाय पेड़ भी
हाथ जोड़कर खड़ा हो गया है
कहता है -
इसे प्रकाशित मत करवाना
कागज कम पड़ जाएंगे
आपका बायोडाटा छापने के लिए
धरती के सारे पेड़ कट जाएंगे
आप तो दयालु हैं
दिलदार हैं
ब्रह्मांड के कवि हैं।
मैं अचरज में पड़ गया
ऐसी मेरी छवि है!!
मंद मंद मुस्काया
वापस धरती पर आ गया
मुझे तो यही गर्व था
कि पूरे ब्रह्मांड में छा गया
अब ब्रह्मांड कवि
अर्थात यूनिवर्सल पोएट का
तमगा लेकर डोला करता हूँ
दूसरा कोई तो कहता नहीं
अपने ही मुँह से कहता हूँ।
कि अब तो सब जगह सेट हूँ
मैं यूनिवर्सल पोएट हूँ।
... केशव ...

आदमी के मौत

रात बाटे
त रहे दी
जे नइखे जागत,
सजग होके नइखे भागत
सहता आजुओ
त सहे दी।
जियरा के उदास मत करीं ,
जीयते रउरो मत मरीं
ना त
आदमी के मुअल चाम
कवनों कामे ना आई ,
स्थिति अइसने बनल रही त
आदमी आदमीए के खाई।
अगर मरहीं के बा
त कुछ अइसन क के मर जाईं
कि भाग पराये अन्हरिया
अँजोर अइसन बन के जर जाई।
तब रात, रात ना रही
हारे वाला कवनो बात ना रही।
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- केशव मोहन पाण्डेय 20,12.2013

Nov 15, 2015

आतंक को धिक्कार


मुझमें जितनी असभ्यता है
उससे भी नीचे जाकर
मैं गाली देता हूँ
उन बर्बर कृत्यों को
जो आतंक से अभिहित हैं।
मुझमें जीतनी भी
जैसी भी
सच्चाई है
आज सच्चे मन ने
उन्हें बटोर कर
मैं श्राप देता हूँ
उन नास्तिक विचारों को
जो मानवता के शत्रु हैं।
मुझे जो संस्कार दिए हैं माँ ने
पिता ने जैसे सँवारा है
मैं वह सब कुछ
उड़ेल देना चाहता हूँ
उन असामाजिक तत्त्वों में
जो इसी समाज में रहते हैं।
वे रोटी नहीं खाते
पानी नहीं पीते
चैन से नहीं रहते
चैन से नहीं जीते,
बस जान खाते हैं
खून पीते हैं
आतंक फैलाते हैं
आतंक में जीते है
और नफ़रत करते हैं मानवता से
बम-बारूद से जिन्हें प्यार है
ऐसे आतंक के संवाहक जीवन को
धिक्कार है।
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- केशव मोहन पाण्डेय

Oct 13, 2015

अाग्रह

'प्रतिलिपि काव्य प्रतिस्पर्धा' में सम्मिलित मेरी कविता। कृपया पढ़ें और पसंद आए तो लाइक करें। आपके मार्गदर्शन की भी अपेक्षा है। 
http://www.pratilipi.com/read?id=6031657224110080

Aug 28, 2015

बढ़ते जाना है


हार मत मानना
रे मन!
कदम बढ़ाते जाना
आँखें
लक्ष्य पर अड़ाते जाना।

क्या हुआ जो गिर गए?
ऐसे ही तो
अनगिनत साधु, संत
और असंख्य पीर गए।

जो चलोगे नहीं
तो गिरोगे कहाँ
और जो चलोगे नहीं
सिर्फ डरोगे गिरने से
तो लक्ष्य समर्पण कैसे करेगा
स्वयं को
तुम्हारे चरणों में?

अगर सोचते हो
लक्ष्य को पाना है
तो हर हाल में
आगे
और आगे
और आगे
बढ़ते जाना है।
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© केशव मोहन पाण्डेय